बिगड़ती डेमोग्राफी में हिंदू और आदिवासी अस्तित्व पर संकट

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।  

भारत का समाज प्राचीनकाल से ही धार्मिक सहिष्णुता और विविधता का प्रतीक रहा है। हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, आदिवासी और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय मिलकर इस देश की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करते रहे हैं। परंतु, हाल के वर्षों में देश की डेमोग्राफी /जनसांख्यिकी में आ रहे बदलाव और मुस्लिम जनसंख्या में हो रही तेज़ी से वृद्धि ने नई चिंताओं को जन्म दिया है। कई विश्लेषक इसे एक सुनियोजित जनसंख्या विस्तार नीति का परिणाम मानते हैं, जिससे देश की जनसंख्या संरचना और संतुलन में गहरा असर पड़ सकता है। यह असंतुलन विशेष रूप से हिंदू खास कर आदिवासी समुदायों के लिए संकटपूर्ण सिद्ध हो सकता है और भविष्य में उनके अस्तित्व के सामने भी चुनौती पेश कर सकता है।

मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि और कट्टरता का प्रभाव
मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि और उसके साथ आई धार्मिक कट्टरता का प्रभाव भारतीय समाज के समक्ष कई प्रश्न खड़े कर रहा है। कुछ इस्लामिक धार्मिक विचारधाराएँ यह मानती हैं कि गैर-मुसलमानों का अस्तित्व धर्म के लिए अनुचित है, और केवल मुसलमानों का ही इस धरती पर सर्वाधिकार होना चाहिए। भारत में ऐसे मुस्लिमों की जनसँख्या विस्तार निति भारत में अल्पसंख्यकों को विलुप्तता के कगार पर ला खड़ा कर सकती है। मुस्लिमो में यह धार्मिक धारणा है कि कोई भी गैर मुस्लिम इस धरती पर जीने योग्य नहीं है और मुसलमान ही धरती का सर्वश्रेष्ट प्राणी है; भारत में अन्य समाज के लिए ख़तरनाक विचार है जो कभी भी हिंसक हो सकता है। ऐसे में किसी भी प्रान्त की डेमोग्राफी में बदलाव संभव है। यह विचारधारा न केवल धार्मिक संकीर्णता को बढ़ावा देती है, बल्कि हिंसक प्रवृत्तियों को भी जन्म दे सकती है। नतीजतन, गैर-मुस्लिम समुदायों में एक असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो रही है। उनके लिए यह चिंता का विषय है कि यदि इस बढ़ती जनसंख्या को समय रहते नहीं रोका गया, तो इसका उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अस्तित्व पर सीधा असर पड़ सकता है। यह धारणा न केवल धार्मिक संकीर्णता को बढ़ावा देती है, बल्कि सामाजिक स्थिरता के लिए भी खतरा उत्पन्न करती है। ऐसे में अन्य समुदायों के बीच असुरक्षा और भय का वातावरण बन रहा है। इस कट्टरता के फलस्वरूप धार्मिक असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। मुस्लिम जनसंख्या की तेज़ वृद्धि और उसमें निहित कुछ रूढ़िवादी धार्मिक विचारधाराओं के चलते हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय अपने धार्मिक और सांस्कृतिक अस्तित्व को खतरे में महसूस कर रहे हैं। यदि यह जनसंख्या वृद्धि इसी गति से जारी रही, तो अन्य समुदायों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान पर गंभीर असर हो सकता है।

हिंदू और आदिवासी समुदायों के अस्तित्व पर संकट
भारत में जनसांख्यिकी असंतुलन का सबसे बड़ा खतरा हिंदू और आदिवासी समुदायों पर पड़ सकता है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, केरल, और अन्य राज्यों में मुस्लिम आबादी की बढ़ती संख्या का असर अब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। इस असंतुलन का परिणाम यह हो सकता है कि आने वाले वर्षों में हिंदू समुदाय भी अपने ही देश के कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक स्थिति में पहुँच जाए। इसका असर केवल धार्मिक और सांस्कृतिक अस्तित्व पर ही नहीं, बल्कि इन क्षेत्रों की स्थानीय परंपराओं और मान्यताओं पर भी पड़ेगा।

आदिवासी समुदायों की स्थिति और भी चिंताजनक है। धर्मांतरण के माध्यम से उनकी संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं को प्रभावित करने की कोशिशें जारी हैं। बाहरी ताकतें इस समुदाय की धार्मिक पहचान को बदलने का प्रयास कर रही हैं, जिसके चलते आदिवासी अपनी संस्कृति और पहचान खोने के कगार पर आ सकते हैं। इस धर्मांतरण का मकसद केवल एक धार्मिक विस्तार से विलग कुछ नहीं दीखता। अल्पसंख्यकों के साथ – साथ हिन्दुओं और उनमे भी खासकर आदिवासिओं का धर्मपरिवर्तन चिंतनीय है। इसमें हिन्दू संगठनों का हस्तक्षेप तो आवश्यक हो ही गया है व्यक्तिगत तौर भी हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों को चौकन्ना रहने की नितांत आवश्यकता है। इन्हें यह निश्चित करना होगा कि ऐसी ताकतें किसी भी प्रकार अपने पांव ना पसारने पाएं।

धार्मिक असंतुलन के परिणाम और संभावित हिंसा
इतिहास साक्षी है कि जब भी किसी क्षेत्र में एक धार्मिक समुदाय ने बहुसंख्यक स्थिति प्राप्त की है, तो वहाँ सामाजिक अस्थिरता और हिंसा की स्थिति उत्पन्न हुई है। डेमोग्राफिक असंतुलन से भविष्य में यही स्थिति उत्पन्न हो सकती है। मुस्लिम जनसंख्या में हो रही तेज़ वृद्धि और उसके परिणामस्वरूप समाज में बढ़ता धार्मिक असंतोष इस बात का संकेत है कि यदि यह असंतुलन जारी रहा, तो सामाजिक हिंसा और अस्थिरता का खतरा भी बढ़ जाएगा।

वर्तमान समय में भारत के कई क्षेत्रों में पहले ही गैर-मुसलमानों पर दबाव महसूस किया जा रहा है, जो कि इस असंतुलन के खतरनाक संकेत हैं। एक बार जब यह स्थिति अपने चरम पर पहुँच जाएगी, तो इससे समाज में व्यापक असंतोष और अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। खासतौर पर हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए यह एक चिंता का विषय बन सकता है। यह स्थिति सामाजिक सुरक्षा और शांति के लिए गंभीर चुनौती बन सकती है।

हिंदुत्व संगठनों की भूमिका: समय की मांग
बिगड़ती डेमोग्राफिक संरचना को संतुलित करने के लिए हिंदुत्व संगठनों का हस्तक्षेप अब अत्यंत आवश्यक हो गया है। इन संगठनों का उद्देश्य केवल जनसंख्या संतुलन बनाए रखना ही नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता की सुरक्षा करना भी है। विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों का हस्तक्षेप इस स्थिति में समय की आवश्यकता बन गया है।

धर्मांतरण और अवैध प्रवासियों की संख्या में वृद्धि जैसी समस्याओं के समाधान के लिए संगठनों को विशेष कदम उठाने होंगे। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि समाज में किसी भी प्रकार की कट्टरता और असमानता फैलाने वाली ताकतें अपने पैर न पसार सकें। हर हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक नागरिक को भी अपनी संस्कृति और धर्म की सुरक्षा के प्रति जागरूक और सतर्क रहना चाहिए।

हिंदुत्व संगठनों को चाहिए कि वे समाज में एकजुटता और सौहार्द्र का माहौल बनाए रखें, ताकि समाज का हर वर्ग सुरक्षित और संरक्षित महसूस कर सके। साथ ही, इन्हें समाज के हर व्यक्ति को अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा के प्रति जागरूक करना होगा।

सरकार की भूमिका: नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता
इस बदलती डेमोग्राफी /जनसांख्यिकी पर सरकार का दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण है। देश की सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं को सुरक्षित रखने के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए। जनसंख्या नियंत्रण और धर्मांतरण जैसी नीतियों पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज में सामुदायिक संतुलन बना रहे और बाहरी हस्तक्षेप से देश की आंतरिक संरचना पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। जो गैर-मुस्लिम राजनीतिज्ञ वोटों के लालच में ऐसी मानसिकता को बढ़ावा दे रहे हैं भविष्य में उन्ही पर ये गाज न गिरेगी इस बात से वो कितना अश्वस्थ हैं ?

जनसंख्या वृद्धि और धर्मांतरण के संबंध में सरकार को कड़े नियम और नीतियाँ बनानी चाहिए, ताकि जनसांख्यिकी संतुलन बरकरार रहे और देश और राज्य की सांस्कृतिक विविधता सुरक्षित रह सके। जनसंख्या नियंत्रण और धर्मान्तरण कानूनों का सख्ती से अनुपालन के माध्यम से ही समाज में संतुलन बनाए रखना संभव हो सकता है।

भारत की बदलती जनसांख्यिकी में मुस्लिम जनसंख्या का तेज़ी से बढ़ना और उसमें निहित कट्टर धार्मिक मान्यताएँ देश की धार्मिक और सांस्कृतिक संरचना के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर सकती हैं। यदि इस स्थिति को समय पर नियंत्रित नहीं किया गया, तो इसका असर केवल भारतीय बहुलता और संस्कृति पर ही नहीं पड़ेगा, बल्कि समाज में अस्थिरता और हिंसा की संभावना भी बढ़ जाएगी।

यह अत्यंत आवश्यक है कि सभी समुदाय इस स्थिति को समझें और समाज में शांति और संतुलन बनाए रखने के प्रयास में योगदान दें। विशेष रूप से हिंदू संगठनों का हस्तक्षेप जरूरी है ताकि वे समाज में एकता, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने का प्रयास कर सकें। हर नागरिक को इस विषय में जागरूक रहना चाहिए और अपने समाज की सुरक्षा और शांति बनाए रखने के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

भारत का भविष्य तभी सुरक्षित रह सकता है जब सभी समुदाय मिलकर देश की धार्मिक विविधता और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करें। इस समय आवश्यकता इस बात की भी है कि सभी हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक नागरिक सतर्कता बरतें और एकजुट होकर समाज में अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करें। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि समाज में असमानता और असंतोष को जन्म देने वाली ताकतें अपनी जड़ें न जमा सकें।