सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सत्ता लोलुपता ने झारखण्ड के सभी वर्गों को असंतुष्ट ही नहीं पूरा नाराज़ कर के रखा है। मुस्लिम तुष्टिकरण नीति ने झारखण्ड से आदिवासियों से राज्य मानो छीन लिया है। यह विडंबना ही है कि जिन आदिवासियों के नाम झारखण्ड राज्य का निर्माण हुआ था वहां अब बांग्लादेश के घुसपैठियों का वर्चस्व स्थापित कर दिया गया है। सत्ता लोलुपता ने एक आदिवासी के हाथ से ही तमाम आदिवासियों का शोषण करा दिया है। यह त्रासदी नहीं तो क्या है ?
झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की सरकार ने जो राजनीतिक परिदृश्य निर्मित किया है, वह न केवल आदिवासियों के लिए बल्कि राज्य के समस्त वर्गों के लिए चिंता का विषय बन चुका है। सत्ता की लालसा ने इस सरकार को इतना मजबूर कर दिया है कि वह अपने मूलभूत सिद्धांतों और आदिवासी अधिकारों की अनदेखी करने लगी है। यह विडंबना ही है कि जिस राज्य की स्थापना आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए की गई थी, आज वही आदिवासी अपनी पहचान और अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं।
आदिवासी अधिकारों का हनन
सत्ता की भूख ने न केवल झारखण्ड के आदिवासियों को हाशिए पर धकेल दिया है, बल्कि राज्य की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। यह अत्यंत चिंताजनक है कि झारखण्ड में बांग्लादेशी घुसपैठियों का वर्चस्व स्थापित हो गया है, और यह इस हद तक पहुँच गया है कि कई गाँवों से आदिवासियों को बेदखल कर दिया गया है। जब संथाली समुदाय के लोगों को उनके घरों से निकाला जा रहा है, तो यह स्पष्ट है कि झारखण्ड में आदिवासियों की स्थिति अत्यंत खराब हो रही है।
सरकार की ऐसी नीतियों से आदिवासियों के बीच असंतोष और आक्रोश बढ़ रहा है। जब राज्य सरकार की मूकदर्शकता में बाहरी घुसपैठियों द्वारा आदिवासियों के गाँवों पर कब्जा किया जा रहा है, तब क्या यह नहीं दिखाता कि सत्ता के प्रति जेएमएम की लोलुपता ने आदिवासियों के अधिकारों का हनन किया है? यह सच है कि आदिवासी समाज का शोषण अब उनके अपने ही हाथों में हो रहा है। जब एक आदिवासी समुदाय के लोग अपने ही समुदाय के सदस्यों द्वारा शोषित होते हैं, तो यह एक बड़ी त्रासदी बन जाती है।
महिलाओं की सुरक्षा का संकट
वर्तमान में झारखण्ड में आदिवासी महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और अन्य अपराधों की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं। सरकार इन अपराधियों के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाने में असमर्थ रही है, जिससे अपराधियों के हौसले और बढ़ गए हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण के तहत, राज्य सरकार ने ऐसे मामलों में सक्रियता नहीं दिखाई है, जिससे यह साफ होता है कि आदिवासी महिलाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जा रही है। यह एक समाज के लिए बेहद चिंताजनक स्थिति है, जहां महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा को नजरअंदाज किया जा रहा है।
धर्मांतरण की गतिविधियाँ भी झारखण्ड में तेजी से बढ़ रही हैं, जहां हजारों आदिवासी महिलाओं को शादी के जाल में फंसाकर उनकी नस्ल बदलने का आरोप लगाया गया है। इस स्थिति ने आदिवासी परिवारों में असुरक्षा और भय का माहौल बना दिया है। जब आदिवासी परिवार अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं, तो सरकार उनकी समस्याओं को हल करने में असफल रहती है, और केवल खानापूर्ति करती है।
राजनीतिक तंत्र की भूमिका
झारखण्ड में सत्ता के लिए कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण का समर्थन एक ऐसी कड़ी बन गई है, जिसने आदिवासी समुदाय को हाशिये पर धकेल दिया है। यह सिद्धांत केवल सत्ता की राजनीति को बढ़ावा दे रहा है, जबकि झारखण्ड की जनता, विशेषकर आदिवासी समाज, इसके दुष्परिणाम झेल रहा है। यह तथ्य अत्यंत चिंताजनक है कि 1951 से अब तक आदिवासियों की जनसंख्या 90% से घटकर लगभग 67% रह गई है, जबकि मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।
इस परिस्थिति में राज्य की राजनीतिक पार्टियों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्हें चाहिए कि वे जनहित के मुद्दों को प्राथमिकता दें और चुनावी लाभ के लिए किसी एक समुदाय के खिलाफ न जाकर सभी के अधिकारों की सुरक्षा करें। अगर हम ऐसे दृष्टिकोण को अपनाते हैं, तो निश्चित ही झारखण्ड की स्थिति में सुधार हो सकता है।
भविष्य की चुनौती
यदि सरकार इस दिशा में सख्त कदम नहीं उठाती है, तो निश्चित ही झारखण्ड के आदिवासी एक दिन दया के पात्र बनकर रह जाएंगे। यह समय है कि सरकार को अपने प्राथमिकताओं की समीक्षा करनी चाहिए और आदिवासी समुदाय की सुरक्षा, सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। सत्ता की लालसा में डूबी सरकार को यह समझना होगा कि एक मजबूत झारखण्ड के लिए आदिवासी समुदाय की भागीदारी और उनकी सुरक्षा अनिवार्य है।
झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को अपनी सत्ता लोलुपता से ऊपर उठकर आदिवासियों की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य करना होगा, अन्यथा यह राज्य एक गंभीर संकट में फंस सकता है। यह न केवल झारखण्ड के भविष्य के लिए आवश्यक है, बल्कि आदिवासियों के अस्तित्व के लिए भी अनिवार्य है कि उनकी आवाज़ को सुना जाए और उन्हें सम्मानपूर्वक जीने का अवसर दिया जाए।
समाज में जागरूकता की आवश्यकता
आदिवासी समाज को भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना होगा। उन्हें समझना होगा कि शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी ही उनके अधिकारों की रक्षा का एकमात्र साधन है। आदिवासियों को अपनी शक्ति को पहचानना और संगठित होना होगा, ताकि वे अपनी आवाज को प्रभावी रूप से उठा सकें। अगर आदिवासी समाज एकजुट होकर अपने अधिकारों की मांग करेगा, तो निश्चित ही सरकार को उनकी बात सुननी पड़ेगी।
झारखण्ड का भविष्य आदिवासियों के हाथ में है। अगर वे अपनी आवाज को प्रभावी रूप से उठाते हैं, तो उन्हें उनके अधिकार मिल सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें संगठित होना होगा और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए जागरूक होना होगा। सत्ता की लालसा ने जो संकट उत्पन्न किया है, उससे उबरने के लिए सभी वर्गों को एकजुट होना पड़ेगा। केवल तभी झारखण्ड की राजनीतिक स्थिति में सुधार होगा और आदिवासियों का अस्तित्व सुरक्षित रहेगा। वरना जो परिस्थितियां उत्पन्न हो रहीं हैं , झारखण्ड को भी पश्चिम बंगाल या बांग्लदेश के समकक्ष पहुँचने में देर नहीं लगेगी।