सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
झारखंड में 2024 के विधानसभा चुनाव का माहौल गरमा रहा है। जैसे-जैसे 13 और 20 नवंबर की तारीख करीब आ रही है, चुनावी गतिविधियों का जोर बढ़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आदिवासी मुद्दों के साथ-साथ ‘रोटी, माटी, बेटी’ का नारा उठाकर जनता का समर्थन पाने की कोशिश की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के राज्य दौरे से यह स्पष्ट है कि भाजपा इस बार आदिवासी वोट बैंक को साधने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है।
अमित शाह ने घोषणा की है कि झारखंड में भाजपा सरकार आने पर समान नागरिक संहिता (UCC) लागू होगी, लेकिन आदिवासियों को इसके दायरे से बाहर रखा जाएगा। यह घोषणा रणनीतिक है, जिसमें भाजपा का इरादा दोहरे लाभ का है—अपने परंपरागत समर्थकों को उत्साहित करना और आदिवासी समुदाय का समर्थन प्राप्त करना। झारखंड में 81 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हैं। इससे स्पष्ट होता है कि किसी भी पार्टी के लिए एसटी वोट बैंक कितना महत्वपूर्ण है, खासकर भाजपा के लिए।
2019 के नतीजे और एसटी वोट बैंक की अहमियत
2019 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण एसटी वोटरों का समर्थन न मिलना था। उस समय, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) और कांग्रेस के गठबंधन ने भाजपा को मात दी थी। अनुसूचित जनजाति की अधिकांश सीटों पर जेएमएम ने जीत दर्ज की, जबकि भाजपा केवल दो एसटी सीटें ही जीत पाई। यह असफलता भाजपा के लिए एक सबक बन गई कि आदिवासी मतदाताओं का समर्थन पाना सत्ता की चाबी हो सकता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा का प्रदर्शन 2014 में बेहतर था। लेकिन उस समय मुख्यमंत्री के रूप में गैर-आदिवासी नेता रघुवर दास की नियुक्ति और कुछ विवादित फैसलों ने आदिवासी समुदाय के बीच भाजपा के प्रति नाराजगी पैदा की। आदिवासी हितों के खिलाफ मानी गई नीतियों, जैसे नई डोमिसाइल नीति और आदिवासी जमीनों से जुड़े कानूनों ने भाजपा को नुकसान पहुंचाया। इसका परिणाम 2019 में देखने को मिला, जब एसटी वोटरों ने भाजपा का समर्थन कम कर दिया।
इस बार भाजपा का फोकस: ‘रोटी, माटी, बेटी’ और यूसीसी
2024 के चुनाव में भाजपा ने ‘रोटी, माटी, बेटी’ के नारे के माध्यम से अपनी रणनीति को स्पष्ट किया है। यह नारा न केवल राज्य के सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दों को ध्यान में रखता है, बल्कि आदिवासियों की भावनाओं को भी छूता है। रोटी से रोजगार और आर्थिक सुरक्षा का संकेत मिलता है, माटी झारखंड के आदिवासी समुदाय की जड़ों से जुड़े मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती है, और बेटी से झारखंड की महिलाओं और बेटियों की सुरक्षा और सम्मान का संकेत है।
समान नागरिक संहिता का मुद्दा भी इस बार चुनाव में जोर पकड़ रहा है। अमित शाह ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा की सरकार बनने पर यूसीसी लागू की जाएगी, लेकिन आदिवासी समुदाय को इससे बाहर रखा जाएगा। इस ऐलान के जरिए भाजपा ने एक तरफ अपने मुख्य समर्थकों का उत्साह बढ़ाया है, वहीं दूसरी तरफ आदिवासियों के बीच भी यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनके सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाएगा। यह रणनीति भाजपा के लिए एक बड़ा दांव साबित हो सकती है, क्योंकि झारखंड में आदिवासी वोट बैंक के बिना सत्ता हासिल करना मुश्किल है।
भाजपा के लिए दोहरी चुनौती
भाजपा के सामने इस चुनाव में दो मुख्य चुनौतियाँ हैं। पहली चुनौती है जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन के समर्थन को कमजोर करना। दूसरा, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पक्ष में आदिवासी समुदाय में उभर रही सहानुभूति की लहर को रोकना। सोरेन की गिरफ्तारी और उस पर भाजपा द्वारा साजिश का आरोप लगाने से आदिवासी समुदाय में उनके प्रति सहानुभूति बढ़ी है। भाजपा इस नैरेटिव को तोड़ने की कोशिश में है ताकि आदिवासी मतदाताओं का समर्थन प्राप्त किया जा सके।
हेमंत सोरेन के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामले को लेकर जेएमएम आदिवासी नेताओं और जनता के बीच भाजपा के प्रति अविश्वास पैदा कर रही है। अगर आदिवासी समुदाय ने जेएमएम के इस प्रचार को अपनाया तो भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।
चंपाई सोरेन का भाजपा में शामिल होना: क्या बनेगी बात?
हाल ही में जेएमएम के वरिष्ठ नेता चंपाई सोरेन भाजपा में शामिल हुए हैं। चंपाई सोरेन का पार्टी में आना भाजपा की रणनीति का हिस्सा है कि वह जेएमएम के आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगा सके। हालांकि, चंपाई सोरेन की लोकप्रियता अपने क्षेत्र तक ही सीमित मानी जाती है, इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि उनका भाजपा में आना कितना प्रभावी साबित होता है।
चुनावी नतीजों पर संभावित असर
भाजपा के लिए आदिवासी वोट इस बार निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। 2019 के अनुभव से सीख लेकर भाजपा ने इस बार आदिवासी समुदाय को प्राथमिकता दी है। राज्य में जनसंख्या का 66.2% हिस्सा आदिवासियों का है, जिसमें से ज्यादातर जिले में आदिवासी आबादी का प्रतिशत काफी ऊंचा है।
यूसीसी, ‘रोटी, माटी, बेटी’ का नारा और राज्य के आदिवासियों की संख्या को संरक्षित करने का मुद्दा—यह सभी चुनावी हथकंडे हैं जो भाजपा की जीत की राह आसान कर सकते हैं। साथ ही, घुसपैठ, जमीनों पर कब्जा, आदिवासी पलायन आदि मुद्दों को उठाकर भाजपा ने आदिवासी समुदाय के हितों को अपने एजेंडे में प्रमुखता दी है।
झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में भाजपा की चुनौती है आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाना और जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन के सामने अपनी उपस्थिति मजबूत करना। ‘रोटी, माटी, बेटी’ का नारा और समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा करते हुए आदिवासियों को इससे बाहर रखने की बात ने भाजपा की चुनावी रणनीति को मजबूत बनाया है। यदि भाजपा अपने इस दांव को सही तरीके से साधने में कामयाब होती है, तो राज्य की राजनीति में एक बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है।
अब देखना यह है कि भाजपा की यह रणनीति वोटरों को कितना आकर्षित करती है और क्या आदिवासी मतदाता इस बार भाजपा के समर्थन में आएंगे, या फिर 2019 के चुनावों की तरह जेएमएम और कांग्रेस को समर्थन देंगे। चुनावी नतीजे आने के बाद ही यह तय हो पाएगा कि भाजपा की यह कोशिश झारखंड की सत्ता में बदलाव ला पाती है या नहीं।