सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
झारखंड की राजनीति ने 2024 के विधानसभा चुनावों के निकट आते ही एक नई दिशा लेना शुरू कर दी है। राज्य में सत्ता के मुख्य खिलाड़ी हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की सरकार और विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच सत्ता संघर्ष चरम पर है। इसके अलावा, कुछ नए और क्षेत्रीय दल भी मैदान में मज़बूती से उतर रहे हैं, जो राज्य की राजनीतिक फिजा को और पेचीदा बना रहे हैं। इस परिदृश्य में 2024 के चुनाव राज्य की राजनीति में निर्णायक साबित हो सकते हैं।
झामुमो: हेमंत सोरेन की अग्निपरीक्षा
हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली झामुमो सरकार ने अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए कई लोकलुभावन योजनाएं शुरू की हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य आदिवासी और ग्रामीण मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना था। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि से संबंधित योजनाएं ग्रामीण इलाकों में सोरेन की पकड़ को मजबूत करने में सफल रही हैं। आदिवासी समुदाय के बीच सोरेन की गहरी पकड़ को देखते हुए भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है।
हालांकि, झामुमो सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों से भी जूझना पड़ रहा है, जिसने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा जांच ने सोरेन सरकार के खिलाफ माहौल गर्म कर दिया है। विपक्षी दल, विशेष रूप से भाजपा, इस स्थिति का पूरा लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सोरेन, भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद, अपने समर्थकों का विश्वास बनाए रख पाते हैं।
इसके अलावा, झारखंड की राजनीति में आदिवासी पहचान और उनकी सांस्कृतिक अस्मिता के मुद्दे हमेशा से चुनावी समीकरणों को प्रभावित करते रहे हैं। सोरेन सरकार ने आदिवासी समुदाय की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए कई नीतियां लागू की हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और जनहित की योजनाओं में देरी ने इन योजनाओं के प्रभाव को सीमित कर दिया है। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और शिक्षा में सुधार की धीमी गति ने सरकार की योजनाओं को प्रभावित किया है।
भाजपा: सत्ता में वापसी की कोशिश
भाजपा, जिसने 2019 के विधानसभा चुनाव में सत्ता गंवा दी थी, 2024 में जोरदार वापसी के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। पार्टी की रणनीति राज्य के आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों समुदायों के मतदाताओं को साधने की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी ने राज्य में कई बड़ी रैलियों का आयोजन किया है, जिनका मुख्य लक्ष्य आदिवासी वोट बैंक को साधना है। भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अपनी खोई हुई जमीन को कैसे फिर से पा सकती है।
राज्य के शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में भाजपा की पकड़ अपेक्षाकृत मजबूत है, लेकिन आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में झामुमो की मजबूती भाजपा के लिए चिंता का विषय है। भाजपा के लिए यह जरूरी होगा कि वह आदिवासी समुदाय को यह भरोसा दिला सके कि उसकी नीतियां उनके हितों की रक्षा कर सकती हैं। पार्टी की रणनीति में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों को भी शामिल करना होगा। खासकर प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को राज्य में भुनाने की कोशिश की जाएगी।
भाजपा ने अपनी रणनीतियों को सशक्त बनाने के लिए स्थानीय नेताओं के साथ समन्वय भी स्थापित किया है, ताकि वे अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही ढंग से समझ सकें। भाजपा के इस प्रयास से उम्मीद की जा रही है कि पार्टी अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने में सफल होगी।
कांग्रेस: अस्तित्व की लड़ाई या झारखण्ड से विदाई
कांग्रेस, जो झारखंड में एक समय प्रमुख राजनीतिक ताकत थी, अब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। पार्टी झामुमो के साथ गठबंधन में तो है, लेकिन उसका खुद का कोई प्रभावी जनाधार नहीं है। आंतरिक गुटबाजी और नेतृत्व की कमी ने पार्टी को कमजोर कर दिया है। पार्टी का परंपरागत वोट बैंक, जो कभी ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में मजबूत था, अब पूरी तरह से बिखरता नजर आ रहा है।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने मतदाताओं के बीच विश्वास वापस पाने की है। अगर पार्टी स्थानीय मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान देती है और संगठनात्मक कमजोरी को दूर करती है, तो उसे कुछ सफलता मिल सकती है। वर्ना इस बार के चुनाव में कांग्रेस की विदाई निश्चित दिख पड़ती है। फिलहाल उसकी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। कांग्रेस के नेता अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि भाजपा और झामुमो के बीच सत्ता संघर्ष के कारण आम जनता के मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, लेकिन वे स्वयं स्थानीय मुद्दों को उठाने में काफी कमजोर साबित हुए हैं।
तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी): एक नई ताकत?
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) झारखंड में एक नए विकल्प के रूप में उभर रही है। टीएमसी का मुख्य फोकस अल्पसंख्यक और वामपंथी झुकाव वाले मतदाताओं पर है। पार्टी पर बांग्लादेशी घुसपैठियों को झारखंड में स्थापित करने, क्षेत्र विशेष में वोटरों की संख्या में कई गुना उछाल और ऐसे कई नैतिक-अनैतिक घटनाक्रम चुनावी नतीजों को प्रभावित करेंगे। पार्टी ने राज्य में अपनी संगठनात्मक ताकत को बढ़ाने के लिए कई प्रयास किए हैं। ममता बनर्जी का करिश्मा और उनकी आक्रामक राजनीति टीएमसी के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है।
हालांकि, झारखंड की राजनीति में बाहरी दलों के लिए अपनी जगह बनाना हमेशा मुश्किल रहा है। यहां के मतदाता स्थानीय मुद्दों और नेताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। टीएमसी की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह राज्य के स्थानीय मुद्दों को कितनी गहराई से समझ पाती है और उसका नेतृत्व कितनी कुशलता से अपनी चुनावी रणनीति को अंजाम देता है। अगर टीएमसी झारखंड के मतदाताओं का दिल जीतने में सफल रही, तो यह राज्य की राजनीति में एक बड़ी बदलाव की शुरुआत हो सकती है।
आजसू और अन्य क्षेत्रीय दल: महत्वपूर्ण भूमिका
आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन), जो पिछले चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन में थी, इस बार स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की तैयारी में है। पार्टी का मुख्य एजेंडा हमेशा आदिवासी और स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रहा है। आजसू का क्षेत्रीय आधार मजबूत है और यह विशेष रूप से उन इलाकों में प्रभावी है जहां झामुमो और भाजपा की पकड़ कमजोर है।
हालाँकि, आजसू एनडीए का एक घटक दल है और अगर आजसू ने अपनी स्थिति को मजबूती से प्रस्तुत की, तो वह झामुमो और JBKSS दोनों के लिए चुनौती बन सकती है। पार्टी की ताकत उसकी स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता है, और यह इस बार के चुनाव में एक महत्वपूर्ण कारक हो सकती है।
आजसू की बढ़ती हुई गतिविधियों ने राज्य की राजनीतिक बिसात पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। पार्टी ने आदिवासी युवाओं और स्थानीय समुदायों के बीच अपनी पहचान को मजबूत किया है। इससे पहले, जब आजसू भाजपा के साथ थी, तब भी उन्होंने आदिवासी मुद्दों को उठाया था, लेकिन अब स्वतंत्र रूप से अपनी राजनीतिक आवाज को बुलंद करने का प्रयास कर रही है।
झारखंडी भाषा खतियान संघर्ष समिति (JBKSS): एक नया खिलाड़ी
JBKSS राज्य की राजनीति में एक नया चेहरा है, जो 1932 खतियान आधारित आरक्षण और झारखंड की स्थानीय भाषाओं की सुरक्षा के मुद्दे को लेकर चुनावी मैदान में उतरी है। इस मुद्दे ने राज्य के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में गहरी पैठ बनाई है। 1932 खतियान आधारित आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील है, क्योंकि यह आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के बीच एक विभाजन रेखा खींचता है। JBKSS इस मुद्दे पर जनता का समर्थन हासिल करने में सफल रही, तो यह झामुमो और भाजपा दोनों के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है।
इसके अलावा, JBKSS झारखंडी भाषाओं की सुरक्षा को लेकर भी आवाज उठा रही है, जिससे स्थानीय भाषाई पहचान को बल मिलेगा। झारखंड के स्थानीय निवासियों के लिए यह मुद्दा महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उनकी संस्कृति और पहचान से जुड़ा हुआ है। यदि JBKSS अपनी जनाधार को मजबूत करने में सफल रही, तो यह राजनीतिक समीकरणों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि आजसू और JBKSS दोनों कुड़मी वोटो पर केंद्रित पार्टियां हैं और दोनों एक दूसरे के लिए जानलेवा साबित हो सकती हैं। अब तक बहुत हद तक कुड़मी वोटों पर आजसू का वर्चस्व सा था। किन्तु जेबीकेएसएस के अस्तित्व में आने के बाद इस मामले में आजसू की स्थिति काफी कमजोर पड़ी है जैसे उसने अपनी आधी से ज्यादा ताक़त गँवा दी हो।
2024 के चुनावी समीकरण
2024 के झारखंड विधानसभा चुनाव केवल भाजपा और झामुमो की लड़ाई तक सीमित नहीं रहेंगे। JBKSS और आजसू जैसे स्थानीय दल, जो खतियान आधारित आरक्षण और स्थानीय मुद्दों पर जोर दे रहे हैं, चुनावी समीकरण को जटिल बना सकते हैं। इन दलों के उभार से झामुमो और भाजपा के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लग सकती है, खासकर आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में।
भाजपा की रणनीति प्रधानमंत्री मोदी के करिश्मे और राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित रहेगी, जबकि झामुमो को अपने आदिवासी समर्थन को मजबूत करना होगा। कांग्रेस की स्थिति कमजोर बनी हुई है, लेकिन अगर वह संगठनात्मक रूप से मजबूत होती है, तो उसे भी एक अवसर मिल सकता है। JBKSS और आजसू जैसे दलों का उभार इस चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
इस प्रकार, 2024 के झारखंड विधानसभा चुनाव में कई कारक और दल शामिल होंगे, जो न केवल राज्य की राजनीति को प्रभावित करेंगे, बल्कि यह तय करेंगे कि झारखंड की राजनीति की दिशा क्या होगी। उस पर से यशवंत सिन्हा ने एक नई पार्टी की घोषणा कर नई हलचल पैदा कर दी है सो अलग। आगामी चुनाव राज्य की राजनीतिक गतिशीलता के लिए एक नए अध्याय का प्रारंभ कर सकते हैं।