कहाँ हो कहाँ हो प्यारे रघुबर दुलारे……-ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

उधर प्रभु श्रीराम वन वन भटक रहे हैं और इधर माता कौशल्या पुत्र राम के विरह में व्याकुल होकर विलाप कर रही हैं। हे प्यारे रघुनन्दन! तुम कहाँ हो ? जब से तुम वन में गए तब से न तो मुझे दिन में चैन आ रहा है और न रातों को निन्द ही आ रही है। हे लाल! आकर मुझे मैया मैया कह कर पुकारो, मैं तुम्हारी यह आवाज सुनने के लिए व्याकुल हूँ। ये आँखें तुम्हारे दर्शन के लिए प्यासी हैं। जब जब तुम्हारी याद आती है तब तब आँखों से जल बरसते हैं। हे पुत्र! अब इस बिलखती माता को कौन सम्हारेगा ? इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:—-—

कहाँ हो कहाँ हो प्यारे रघुबर दुलारे ।
जबसे गए बन में, दिन नाहिं चैना ।
आँखों को नीन्द नहीं, बीते न रैना ।।
मैया मैया कहि के फिर पुकारो मेरे प्यारे,
मेरे रघुबर दुलारे ।
कहाँ हो कहाँ हो प्यारे रघुबर दुलारे ।
कहाँ हो कहाँ हो प्यारे………
दर्शन को प्यासे नैना, बिकल रहत दिन रैना ।
बाट निहारत निश दिन, तोहके पुकारत नैना ।।
आओ आओ आओ मेरे प्राणों से प्यारे,
मेरे रघुबर दुलारे ।
कहाँ हो कहाँ हो प्यारे रघुबर दुलारे ।
कहाँ हो कहाँ हो प्यारे………
जब जब याद तुम्हारी आवै, लोचन झर झर नीर बहावै ।
निष्ठुर जननी हार गई अब, को अब आकर धैर्य बँधावै ।।
बिलखत मैया को कौन सम्हारे,
मेरे रघुबर दुलारे ।
कहाँ हो कहाँ हो प्यारे रघुबर दुलारे ।
कहाँ हो कहाँ हो प्यारे………

 

रचनाकार

  ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र