केवँट भगवान राम का चरण पखार कर परिवार सहित चरणामृत पान किया फिर प्रसन्न मन से प्रभु को गंगा पार उतारा। प्रभु उतराई देना चाहते हैं पर संकोच हो रहा है कि आज मेरे पास केंवट को देने के लिये कुछ है नहीं, तब सीता जी अपनी अंगूठी उतार कर प्रभु को दे देती हैं । प्रभु केंवट को उतराई दे रहे हैं पर केंवट ले नहीं रहा है, कहता है कि हे नाथ जो रोजगार मेरा है वही आपका है । मैं नदी पार उतारता हूँ, आप भवसागर पार उतारते हैं और समान रोजगार करने वाले एक दूसरे से मजदूरी नहीं लेते । हे नाथ आज मैंनें क्या नहीं पाया । सब दुख दरिद्रता मिट गई । आज विधाता ने भरपूर मजदूरी दिला दी । प्रभु अब मुझे कुछ नहीं चाहिये आपकी कृपा के सिवा । तब प्रभु ने केंवट को निर्मल भक्ति का वरदान दे कर विदा किया । इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है आज मेरी ये रचना :—-—
रघुबर नाहिं लेबो हो हम त पार उतरैया ।
जे रोजगार हमार प्रभू जी सोइ रोजगार तोहार,
हम नदिया के पार उतारीं तू भवसागर पार ।
रघुबर नाहिं लेबो हो…………….
नाथ आज हम का नहिं पायो,
सब दुख दारिद दोष मिटायो,
अब कछु नाथ हमें ना चाहीं,
केवल कृपा तोहार ।
रघुबर नाहिं लेबो हो…………….
फिरती बार प्रभू जो देहउँ ,
सो प्रसाद हम सिरु धरि लेहउँ ,
निर्मल भगति लेइ कर केवँट,
चला प्रभू को धार ।
रघुबर नाहिं लेबो हो………..
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र