सखी री को दोऊ राजकुमार……- ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

प्रभु श्रीराम वन मार्ग में लक्ष्मण सीता के साथ जा रहे हैं। मार्ग में जो गावँ टोला बसे हुए हैं उसके स्त्री पुरुष घर से निकल कर दर्शन कर रहे हैं। स्त्रियाँ प्रभु की शोभा का वर्णन कर रही हैं और कहती हैं कि हे सखी! ये दोनों राजकुमार कौन हैं? ये दोनों रूप और शील के धाम हैं। जो आगे श्याम वदन वाले चल रहे हैं वे तो शोभा के समुद्र हैं और जो पीछे गौर वदन वाले चल रहे हैं उनकी तो अपार छवि छाई हुई है और इन दोनों के बीच में जो सुन्दर सुकुमारी स्त्री चल रही है वह तो बिना श्रृंगार के हीं शोभित हो रहीं हैं। हे सखी! ऐसी छवि पर मैं वारि जाऊँ, आज नेत्र भर कर इनका दर्शन कर लो। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—-

सखी री को दोऊ राजकुमार ।
मारग चलत बिनहिं पनही के,
रूप शील आगार ।
आगे चलत श्याम तनु जा के,
शोभा सिंधु अपार ।
सखी री को दोऊ………
पीछे गौर किशोर मनोहर,
छवि की छाइ बहार ।
उभय बीच नारी सुकुमारी,
शोभत बिनहिं सिंगार ।
सखी री को दोऊ………..
जटा मुकुट मुनि वेष सुहाए,
कर धनु रहे सम्हार ।
वारि जाउँ ऐसो छवि पै सखी,
देखहु नैंन उघार ।
सखी री को दोऊ………..
ब्रह्मेश्वर प्रभु की छवि निरखत,
बैठ भगति के द्वार ।
सीय लखन संग राम हृदय महुँ,
कीजै सतत् बिहार ।
सखी री को दोऊ………..

रचनाकार

  ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र