प्रभु श्रीराम राजसिंहासन त्याग कर वन में चले आए हैं और वन वन भटकते अपार दुख सहते भ्रमण कर रहे हैं। मुनियों का वेष धारण कर लिए हैं। गर्मी जाड़ा बरसात सब सह रहे हैं। कन्द मूल फल का आहार कर रहे हैं। बृक्ष के नीचे कुश की चटाई विछा कर रात्रि विश्राम कर रहे हैं।
सभी मुनियों के आश्रम में जाकर उन्हें अभय प्रदान करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—–
सिंहासन त्यागि राम बन आए ।
जटा मुकुट मुनि वेष सजाए ,
वल्कल वस्त्र अपनाए ।
सिंहासन त्यागि राम…….
कन्द मूल फल करत अहारा ,
बिनु पनही बन धाए ।
बारि बात हिम आतप सहते ,
बन बन ठोकर खाए ।
सिंहासन त्यागि राम…….
तरु तर करहिं रात्रि विश्रामा ,
साथरि डास लगाए ।
सकल मुनिन्ह के आश्रम जाकर ,
मुनिजन अभय बनाए ।
सिंहासन त्यागि राम…….
वानर भालु से किए मिताई ,
अधमन्ह गले लगाए ।
ऐसो पथिक रूप हरि चरनन ,
ब्रह्मेश्वर शीष झुकाए ।
सिंहासन त्यागि राम…….
साथरि = कुश की चटाई
डास = बिछावन
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रचनाकार :
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र