हरी बोल हरी बोल .
हरी बोल हरी बोल प्राणी रे ,
चार दिन कि जिन्दगानी ।
दुनिया में आकर प्रभू को भुलाया ,
प्रभु के भजन में तु मन न लगाया,
बीती अकारथ जवानी रे,
चार दिन कि जिन्दगानी ।
हरी बोल हरी बोल………..
काम क्रोध मद में बिता दियो उमरिया,
परधन परतिय पर लगायो नजरिया,
अबहूँ तु चेत अभिमानी रे,
चार दिन कि जिन्दगानी ।
हरी बोल हरी बोल………..
पितु मातु भाइ बन्धु कामे न ऐहैं,
स्वारथ बश सबहीं सनेहिया दिखैहैं,
जग की यह रीत पुरानी रे,
चार दिन कि जिन्दगानी ।
हरी बोल हरी बोल………..
कहता ब्रह्मेश्वर सुनो मोरे बन्धू ,
प्रभु तो दयालू दया के सिन्धू ,
प्रभु की शरण गहो प्राणी रे,
चार दिन कि जिन्दगानी ।
हरी बोल हरी बोल………..
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र