चारो दशरथ ललनवाँ देखब कैसे….-ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

जब प्रभु श्री राम का जन्म हुआ तो शिव जी के मन में प्रभु के दर्शन की लालसा जगी। शिव जी ने मदारी का वेष बना लिया और हनुमान जी को साथ लेकर पहुँच गए राजा दशरथ के महल के द्वार पर और लगे डमरू बजा कर बन्दर नचाने। बालक राम को देख कर दोनो मगन हो गए। मदारी बने शिव जी को पहचान कर प्रभु श्री राम ने मन ही मन प्रणाम किया और फिर लगे रोने कि हमें यह बन्दर चाहिए। तब हनुमान जी ने शिव जी से विनती किया कि मुझे अपने स्वामी की सेवा में छोड़ दिजिए। शिव जी ने हनुमान जी को प्रभु की सेवा में छोड़ प्रभु के बाल स्वरूप को हृदय में धारण कर स्वामी और सेवक के प्रेम की सराहना करते हुए अपने लोक को गए । इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:——-

चारो दशरथ ललनवाँ देखब कैसे ।
सुन्दर रुपवा मदारी के धैलें प्रभू ,
संग में हनुमत के लिहलें बजावत डमरू ,
पहुँचे दशरथ भवनवाँ देखब कैसे ।
चारो दशरथ ललनवाँ………..
हनुमत नाच दिखा के रिझावै ललना ,
शिव जी डमरू बजा के खेलावै ललना ,
दूनो भैलें मगनवाँ देखब कैसे ।
चारो दशरथ ललनवाँ………..
राम पहिचान शिव के मगन भैलें ,
राम मन हीं मन शिव के नमन कैलें ,
ठाने रूदन बन्दरवा लेहब कैसे ।
चारो दशरथ ललनवाँ………..
हनुमत स्वामी चरण को हृदय में धरी ,
हनुमत कर जोरि शिव से बिनतिया करी ,
स्वामि सेवा बिना हम रहब कैसे ।
चारो दशरथ ललनवाँ………..
छोड़ि हनुमत को सेवा में शिव जी चले ,
प्रभु के बाल स्वरूप हृदय में धरे ,
स्वामि सेवक की प्रीती भुलब कैसे ।
चारो दशरथ ललनवाँ………..

रचनाकार :

ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र