रे मन जिस प्रभु को भज कर केवट, शबरी, गणिका, गिद्ध, अजामिल तर गए उस प्रभु को तू क्यों नहीं भजता ? जिस प्रभु को शिव जी अपने हृदय मे धारण कर निरंतर जपते रहते हैं उस प्रभु को तू क्यों नहीं भजता ? क्यों गंगा जल को त्याग कर गड़ही के गंदे जल का सेवन करता है ? इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :——-
रे मन क्यूँ नहिं भजता हरि को ।
जिनके चरन धोइ कर केवँट ,
तरि गए भवसागर को ।
जिनके चरन भोले शिव शंकर ,
जपत रहत हिय धरि को ।
रे मन क्यूँ नहिं भजता………..
जिनके राह तकत नित शबरी ,
पायो एक दिन हरि को ।
गणिका गिद्ध अजामिल तरि गए ,
जिनके नाम सुमिरि को ।
रे मन क्यूँ नहिं भजता………..
नहिं कोउ दूजा रे मन हरि बिनु ,
तरिहैं को भवसरि को ।
गड़ही जल क्यूँ सेवन करता ,
छोड़ि के तू सुरसरि को ।
रे मन क्यूँ नहिं भजता………..
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र