सखी हो बसहा पर हो के सवार हो………..ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

सखियाँ शिव जी का बारात देखने पहुँचीं। देखतीं हैं कि दुल्हा तो बसहा बैल पर सवार होकर व्याह करने आया है। इस विचित्र दुल्हे को देख कर सब आपस में बातें करने लगीं, कहतीं हैं कि हे सखी दुल्हा का श्रृंगार तो अद्भुत है। सिर पर सांप का मौर धारण किया है, सांप का हीं कुण्डल पहना है और सांप का हीं गले में हार है। बदन में श्मशान का भस्म लपेटे है, कटि प्रदेश में बाघम्बर धारण किये हुए है। ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभा पा रहा है। जटा से गंगा की धारा प्रकट हो रही है। साथ में भूत बैताल नाच रहे हैं। ऐसे विचित्र दुल्हे और अद्भुत बारात को देख कर सखियाँ स्तब्ध रह गईं। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:—–

सखी हो बसहा पर हो के सवार हो ,
शिव बियाहन अइलें हो ।
सखी हो जटवा में गंगा जी के धार हो ,
शिव बियाहन अइलें हो ।
सखी हो बसहा पर………..
साँपे के कुंडल साँपहिं गले माला ,
साँपे के शोभे सिर मौर हो ,
शिव बियाहन अइलें हो ।
सखी हो बसहा पर………..
अंग भभूति कटी बाघम्बर ,
शोभेला चन्द्र लिलार हो ,
शिव बियाहन अइलें हो ।
सखी हो बसहा पर………..
भुत बैताल पिशाच पिशाचिन ,
नाचेलें देइ देइ ताल हो ,
शिव बियाहन अइलें हो ।
सखी हो बसहा पर………..

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रचनाकार

   ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र