कुविचार : बदलते संबंध………… – डॉ प्रशान्त करण

साधो ! बिना परिश्रम, उद्यम, मेधा के ही अल्पतम अवधि में सफलता के ही साथ सम्पन्नता प्राप्त करने की साधना में बदलते संबंध एक बहुमूल्य सूत्र है.

साधो ! साधक को संबंध स्थापित करने में सोच – समझकर आगे बढ़ना चाहिए. सोचने के एक ही बिंदु पर ध्यान केंद्रित करना होता है. वह बिंदु है कि क्या इस संबंध से मुझे लाभ है अथवा नहीं? साधक को अगर लाभ दीखता है तो उसमें वह विलम्ब नहीं करता. लाभ की मात्रा जितनी अधिक, संबंध उतना प्रगाढ़. यहाँ साधक विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सापेक्ष्यवाद का सिद्धांत लगाता है. लाभ समाप्त होते ही संबंध को उल्टा कर लेना आवश्यक होता है. अच्छे साधक दूर दृष्टि रखते हैं.किसी से कुछ समय बाद बहुत लाभ मिलने की गणना भी साधक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और आसूचना के आधार पर लाभ लेने के समय से पूर्व ही संबंधों को जोड़कर उसे ऊंचाई देने में लग जाता है. ठीक उसी तरह जैसे थाने के दरोगा जी सनहा दर्ज कर नीचे लिखते हैं – सनहा दर्ज किया ताकि समय पर काम आवे. और समय आते ही लाभ लेने के खींचक पम्प लगा लेता है, जैसे खेत पटाने के लिए कोई किसान रात के अँधेरे में दूसरे के तालाब में मोटी पाइप लगा ले. जब लाभ लेने की उपयोगिता नहीं रह जाती तो मुँह मोड़ लेता है. उत्कृष्ट साधक तो मतलब निकलते ही पहचानने से मुकर जाते हैं. संबंध बदल लेते हैं. कोई बड़ा अधिकारी जब घटिए पद पर अपने दुर्दिन काटता है, तभी उत्कृष्ट साधक उनसे जुड़कर उनकी हर आवश्यकताओं की पूर्ति, आपूर्ति भक्ति भाव से करता है. शीघ्र ही जब वही अधिकारी प्रभावशाली पद पर आ जमता है तो साधक उसी तरह बाल्टी लेकर गाय की थन के नीचे दूध दुहने की भाँति अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है. अधिकारी से हटते ही एकदम से झटके में दूरी बना लेता है. साधक के संबंध लाभ की मात्रा से बढ़ते-घटते रहते हैं.

साधो !सापेक्षवाद से संबंध में भी अछूता न रहा. संबंध समय हो गए. बदलते रहना इनकी नियति बनती जा रही है.