हिंदी दिवस और धिक्कार…….— डॉ प्रशान्त करण

आज अंग्रेजी तिथि चौदह सितंबर है और इसे हिंदी दिवस के रूप में चिन्हित किया गया है.वर्षों से हम इसी अंग्रेजी तिथि को हिंदी दिवस के रूप में मनाने को विवश हैं. यह सब सरेआम स्वतन्त्रता के बाद हुआ. हमें परतंत्रता की मानसिकता से चिपकाकर रखा गया . जगने का प्रयास मात्र तो हम अब करने लगे हैं .जिस सरकार ने हिंदी दिवस प्रारम्भ किया उनकी सोच पर धिक्कार घोषित कर हिंदी के प्रति प्रेम उजागर कर हम अपने दायित्व निभाकर सो सकते हैं.आज हिंदी तिथि विक्रम संवत 2081 के भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि है.एकादशी के उपवास का दिन है. हिंदी के लिए एक क्या शत उपवास भी हो तो कम है. विडंबना यह है कि हमारे यहाँ जिसका दिवस मनाया जाता उसे सार्वजनिक रूप से निःशक्त स्वीकार कर लिया जाता है और उसके सशक्तिकरण के लिए दिवस घोषित कर उसे और निःशक्त बनाने में हम कोई कोर – कसर छोड़ते ही नहीं. इसके लिए हम विद्यालयों , सड़कों , प्रतिष्ठानों , कार्यालयों की नाम पट्टिका से लेकर नियमावली , पाठ्यक्रम , पाठ्यपुस्तकों , न्यायालयों के अभिलेखों तक में धड़ल्ले से परतंत्रता की भाषा अंग्रेजी का खुलकर उपयोग करने में कभी नहीं हिचके. अंग्रेजी बोलना को बड़प्पन की परिभाषा बताते रहे. संततियों को भी सम्मानपूर्वक इसमें घसीटते रहे. हिंदी की जननी संस्कृत का उपहास तक कर उसे सहिष्णुता के विरुद्ध खड़ा किया गया. धिक्कार है कि हमें हिंदी दिवस मनाने पड़ रहे हैं.

विगत तीन दिनों से विभिन्न संस्थानों में हिंदी दिवस आयोजनों का निमंत्रण पत्र तकनीकी माध्यमों से मिल रहा है. कुछ निमंत्रण पत्र अंग्रेजी में भी मिले. लेकिन इस बार कहीं से काव्य पाठ , अतिथि , विशिष्ट अतिथि अथवा मुख्य अतिथि बनने का जुगाड़ तक नहीं लगा. इसी हीन भावना से ग्रसित हो , सम्पूर्ण नकारात्मक भाव से स्वयं को ही धिक्कारने में लगा हूँ. अपने आप को लाख हिंदी सेवक, सरस्वती उपासक , लेखक , कवि , व्यंगकार स्वघोषित कर डालूं , लेकिन किसी के कान पर जूँ न रेंगे तो क्यों मन स्वयं को न धिक्कारे? ऐसा नहीं कि प्रत्याशा में संभावित आयोजकों के प्रशंसा गीत रटने का अभ्यास नहीं किया, प्रभावकारी भाषण लिखकर उसे कंठस्थ नहीं किया, खांटी देशी वेशभूषा धारण करने के वस्त्र , उपकरण तैयार कर नहीं रखे , फिर भी यह हिंदी दिवस छूछा हो गया. भाग्य ने छीका इतना नीचे बाँध दिया कि मेरे स्वाभिमान घुटने तक आ गए और वे मुझे झुकने नहीं देते. धिक्कार है मुझे स्वयं पर!

ऐसा भी नहीं कि इस वर्ष जुगाड़ लगाने में एक पग भी पीछे रहा. सच तो यह है कि कई पग तक आगे निकल गए. संभावित आयोजकों से दो माह पूर्व से निरंतर उनकी चिरौरी भी की , अकारण उनका हाल- चाल पूछते भी रहे, आयोजन कराने में पारंगत मठाधीशों के लगातार सम्पर्क में न रहा, बिना मानदेय के भी आयोजन में जाने की बात न फैलाई , व्यवसायिक हो चुके आयोजक गिरोहों को न टटोला हो , पर हाय रे मेरा भाग्य! हद तो तब हो गयी जब उनमें से एक ने ताना तक मार दिया – आप शुद्ध , सरल हिंदी और सिर्फ बोलते हैं , लोग इसे कड़ी हिंदी पुकारते हैं. आपकी भाषा में न कोई उर्दू शब्द घुस पाता है और न अंग्रेजी शब्द ही. आजकल की हिंदी वह बोली, सुनी , लिखी सम्मान पाती हैं , जिसमें उर्दू , अंग्रेजी शब्दों का अधिक प्रयोग हो और हिंदी के शब्द कम से कम हों. आप सुधरते नहीं, अपनी शुद्ध दकियानूसी भाषा को पकड़कर बैठे हैं तो भुगतिए. आजकल ऐसी हिंदी ही है. धिक्कार है आप पर! आपको क्यों बुलाया जायेगा? इस ताने से आहत होकर मैं माँ शारदे के चरणों को अपने अश्रुओं से धोने लगा हूँ. इसे सार्वजनिक कर रहा हूँ ताकि कोई मेरे अश्रुओं को भूल से ही पोछने तो आ सके.