अंतर्द्वंद्व………….. -डॉ प्रशान्त करण

अंतर्द्वंद्व से मेरा बड़ा पुराना नाता रहा है।बचपन में खेल-कूद में इतना मन रमता था कि पढ़ने के प्रति मन में अंतर्द्वंद्व रहता।जब खेल के चक्कर में माता जी से डांट-मार मिलती तो भी मन में अंतर्द्वंद्व रहता।कॉलेज में जब मित्रगण पढ़ाई के अलावा बाकी सबकुछ स्वतंत्रता से कर बैठते तब भी मन में अंतर्द्वंद्व रहता।अंतर्द्वंद्व की हद तो तब हो गयी जब स्नातकोत्तर वनस्पति विज्ञान में किया,नौकरी पुलिस में और मन साहित्य में लगा रहा।सोचा कि अंतर्द्वंद पर छोटा मोटा शोध किया जाए तो वहाँ भी अंतर्द्वंद ने पीछा नहीं छोड़ा।

पहला ध्यान भगवान शिव के परिवार से किया।शिव की जटाओं में माता गंगा और कपाल पर ज्वाला के रूप में त्रिनेत्र ; कोकिल के ऊपर अमृत का प्रतीक चंद्रमा और नीलकंठ के कंठ में विष; गले में सर्प ,पास बैठे गणेश जी का वाहन मूषक,कार्तिकेय जी का वाहन मोर और तो और महादेव का वाहन वृषभ-माता पार्वती का वाहन सिंह –सब जगह विरोधाभास, अंतर्द्वंद!

आध्यात्मवाद में आगे बढ़कर सोचा कि विष्णु जी से ही उत्तर पूछूँ जैसा अर्जुन ने अंतर्द्वंद में श्रीकृष्ण से प्रश्न किया था।कलियुग में विष्णु भगवान भी क्षीरसागर में अवकाश मना रहे थे।उन्होंने कहा कि मैं स्वयं अंतर्द्वंद में हूँ।रहता क्षीरसागर में ,लेटता हूँ शेषनाग पर और हाथ में कमल- ये सब सागर में !

अब आध्यात्मिक बातों को छोड़कर सीधे मथुरा जी से सम्पर्क किया।मथुरा जी देहाती थाने में जमादार हैं और वादों के निबटारे में लगे हैं।उन्होंने बताया कि केसों के अनुसंधान में कई बार अंतर्द्वंद होता है?हत्या किसने की,क्यो की,कैसे की आदि -आदि।वे बोले – नहीं हम पुलिस वालों को अंतर्द्वंद होता ही नहीं.लेकिन इसका काट सिर्फ पुलिस के पास होता है।हम सबूत को ज्यादा महत्व देते हैं।पहले सबूत इकठ्ठा कर लेते हैं फिर अपनी लाभ-हानि देखकर उस साक्ष्य को किसके साथ कैसे चिपकाना है यह तय करते हैं।इसमें भी कभी-कभी अंतर्द्वंद होता है।हम कुछ कहानी तैयार करते हैं जो दरोगा जी और उनके ऊपर वाले साहबों को पसन्द नहीं आते।इसका भी काट है।ऐसे मौकों पर हमारी सोच एकदम साफ है।जिसमें बड़ा अफसर खुश हो,वही करते हैं।फैसला तो कोर्ट को करना है, हम अंतर्द्वंद के लफड़े में क्यों पढ़े?अरे भाई! पुलिस वालों को कोई अंतर्द्वंद नहीं होता।कोई ग्लानि वगैरह का भी कोई चक्कर नहीं।सजा एक तो मिले या दूसरे को-हमें क्या फर्क पड़ता है।सजा तो आत्मा को मिलती है।सब की आत्मा एक है।शरीर अलग अलग होने के चक्कर में हम क्यों पाप के भागी बनें।आप ही बताइए।कोई अपने पुण्य से छूट भी जाए तो हमें क्या?पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखना तो चित्रगुप्त भगवान का काम है।हम भगवान के काम में कोई हस्तक्षेप नहीं देते हैं।इसलिए हर थाने में मन्दिर होता है और हम अपने आराध्यदेव हनुमान जी की पूजा करते हैं।उनके लंका कांड का अनुसरण अपनी ड्यूटी में करते हैं।फर्क इतना है कि वे भगवान थे और सीता माता का पता लगाए थे।हमलोग इंसान हैं, भगवान नहीं हैं।हम तो किसी भी स्त्री को सीता बताकर कोर्ट में साबित भी कर सकते हैं कि यही सीता हैं।अंतर्द्वंद के चक्कर से मुक्त रहते हैं।अपराध कोई करे , उसका दंड किसी को मिले , कारागार में कोई खटे , सभी आत्मा उसी परमात्मा का ही अंश है . जिस दिन पुलिस से यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण हट जाएगा तो हमलोगों को भयंकर कष्ट होगा . हम कष्ट करने का कार्य करें ही क्यों ? मानव जीवन आनंददायक है , हमें भी तो आनंद लेने का अधिकार है कि नहीं. यह अधिकार न होता तो पुलिस में नौकरी लेने कि इतनी भाग – दौड़ ही क्यों होती ? मथुरा जी के इस आध्यात्मिक तर्क से मैं निरुत्तर हो गया.

मेरा मन अब भी अंतर्द्वंद की साधना में संतुष्ट नहीं हुआ।सोचा रामलाल जी से क्यों न पूछ लूँ?रामलाल जी रास्ते में ही मिल गए।लगे हाथ उनसे भी पूछ लिया।वे बोले-देखो जी,अंतर्द्वंद की स्थिति क्यों आती है, पहले उसे समझो।सत्य-असत्य;धर्म-अधर्म,सही-गलत , नैतिक – अनैतिक में अंतर करोगे तब अंतर्द्वंद होगा ही , होना ही है .दिल और दिमाग दोनों से सोचोगे तब अंतर्द्वंद होगा।सोच का चक्कर करना ही क्यूँ?अरे भाई!साफ-साफ बात यह है कि अपना जिसमें लाभ हो वही सत्य,धर्म और सही है।भले ही इससे दूसरे को अपार हानि हो , हमें क्या ?अच्छा देखो-देश का नेतृत्व कौन करता है?नेता।अब नेता जब इसमें फर्क नहीं करता तो हम कौन होते हैं फर्क करने वाले?मैं फिर अंतर्द्वंद में पड़ गया।

मथुरा जी अथवा रामलाल जी का सिद्धांत सही है या गलत ?
अब आप मेरी मदद करेंगे क्या?
अस्तु।