सदियों पुरानी नीति रही है — किसी देश या प्रदेश को यदि कमज़ोर करना हो, तो सबसे पहले उसकी संस्कृति पर प्रहार करो। उसकी कला, उसकी भाषा, उसकी परंपराएं, उसके मंच — सबको या तो समाप्त कर दो या अप्रासंगिक बना दो। जब संस्कृति खत्म हो जाती है तो उस समाज की आत्मा भी मुरझा जाती है। और यदि नई पीढ़ी से संस्कार छीनने हों, तो उस समाज में कलाओं को पनपने से रोक दो। जब कला मृतप्राय हो जाती है, तब युवा ऊर्जा दिशाहीन हो जाती है और उसकी अभिव्यक्ति आपराधिक प्रवृत्तियों में बदल जाती है। यह नीति कभी भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों की होती थी, लेकिन दुर्भाग्यवश, धीरे-धीरे यह मानसिकता हमारे ही सरकारी ढांचे की कार्यशैली बनती चली गई — बिना किसी औपचारिक घोषणा के।
यह कटु सत्य है कि झारखंड जैसे सांस्कृतिक रूप से संपन्न राज्य में भी कला और संस्कृति को लेकर जो सरकारी रवैया रहा है, वह मात्र औपचारिकताओं तक सीमित रहा है। कभी-कभार कोई संवेदनशील राज्याधिकारी या जिलाधिकारी आ जाए, तो थोड़ी बहुत सांस्कृतिक लहरें उठ जाती हैं; वरना बाकी तो सब निबंधों तक सीमित रह जाती हैं। ‘एक हाथ दे, एक हाथ ले’ की तर्ज पर विभागीय अधिकारी कार्य करते रहे और देखते-देखते झारखंड की कला-संस्कृति क्रमशः रसातल में जाती रही। राजधानी रांची में सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक है, क्योंकि वहां पीआर की सुविधा भी सहज उपलब्ध है, लेकिन क्या झारखंड के अन्य जिलों में भी यह संवेदनशीलता और सहयोग देखने को मिलता है? उत्तर यदि नकारात्मक हो तो आश्चर्य नहीं।
जहां तक स्मृति जाती है, बोकारो में कोई भी व्यापक नाट्य महोत्सव लगभग तीस वर्षों से नहीं हुआ है। यानी झारखंड निर्माण से भी पहले की बात है। याद आता है कि शायद 1995–96 में ‘रावण’ नामक एक बांग्ला नृत्य-नाटिका का मंचन हुआ था, जो संभवतः अंतिम बड़ा नाटक था। उस नाटक में स्थानीय कलाकारों के साथ-साथ बीएसएल के कुछ जूनियर अधिकारी भी शामिल थे। मंच और नेपथ्य मिलाकर कुल 30 के करीब कलाकार थे उस मंचन में। आज उस नाटक से जुड़े लोग या तो इस दुनिया में नहीं रहे, या फिर कहीं और बस गए मुझ जैसे चार – पांच कलाकारों को छोड़ कर। कुछ रंगकर्मी फिल्मों में अपनी पहचान और भविष्य तलाशने निकल गए और बाकी अब भी अपनी पुरानी डायरियों में लिखे संवादों को पलटते हैं, किसी बेहतर समय की उम्मीद में।
मैं स्वयं उस नाटक का हिस्सा था। न केवल एक पात्र को मंच पर प्रस्तुत किया, बल्कि स्क्रिप्ट पर भी काम करने का अवसर मिला और कई गीतों की रचना का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ। 1992-1993 तक का समय बोकारो की सांस्कृतिक चेतना का उत्कर्ष था। शहर में हिन्दी, बांग्ला, भोजपुरी, मैथिली, उड़िया, कन्नड़, पंजाबी, खोरठा आदि — हर भाषा समुदाय की अपनी-अपनी नाट्य संस्थाएं थीं, जिनमें बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक की भागीदारी होती थी। लेकिन आज? वो मंच ही नहीं बचे जहां ये संस्थाएं सांस ले सकें।
किसी एक बांग्ला संस्था ने कोलकाता से नाट्यमंडली को आमंत्रित कर बोकारो में रंगमंच को जीवित रखने का एक आखिरी प्रयास जरूर किया था, परंतु वह भी हताश होकर सालों से चुप बैठ गई। स्थानीय मिथिला समितियों द्वारा अपने पारिवारिक आयोजनों में लघु नाट्य प्रस्तुतियां दी जाती रहीं, जैसे स्कूलों में एनुअल फंक्शन में नाटक कराए जाते हैं। ले-दे कर चंद्रपुरा प्रखंड में ‘धरोहर’ नमक एक नाट्य संस्था आज भी गतिशील है। लेकिन ये प्रयास बोकारो में मंचीय परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए अपर्याप्त हैं।
बोकारो की नई पीढ़ी ने बोकारो में मंचीय नाटक कभी देखे ही नहीं, तो उनमें नाट्यकला की समझ और सम्मान विकसित हो भी कैसे सकता है? वे रील-कल्चर की दुनिया में अपनी ऊर्जा और अभिव्यक्ति को खपा रहे हैं, जहां न अनुशासन है, न गहराई, और न ही विचारशीलता। ऐसी जगहों पर कला-संस्कार मिलने की संभावना लगभग नगण्य होती है। इन तीन दशकों में न बोकारो के औद्योगिक प्रबंधन ने, न ही प्रशासन ने इस मृतप्राय विधा की ओर कोई दृष्टि डाली।
अब जब नए प्रशासन के आने से थोड़ी आशा जगी है, तो यह देखना भी आवश्यक है कि कला-संस्कृति से जुड़े आयोजनों को प्रशासनिक प्राथमिकताओं की सूची में कौन-सा पायदान मिलता है। बोकारो के पूर्व कार्यकाल में कुछ पुराने और कुछ नवोदित नाट्यकर्मियों ने ‘बोकारो रंगमंच’ नामक एक संस्था की स्थापना की और ‘रंगकुम्भ 2025’ नामक एक नाट्य महोत्सव आयोजित करने की योजना बनाई। यह एक ऐसा प्रयास था, जिसमें वर्षों से बंद पड़े रंगमंच को पुनर्जीवन देने की संभावना थी।
किन्तु, यथार्थ यही है कि मंचन जैसी गतिविधियों के लिए आवश्यक संसाधनों की भारी लागत और प्रशासनिक सहयोग की कमी के कारण यह प्रयास भी आगे नहीं बढ़ सका। थम सा गया। महंगे ऑडिटोरियम, उपकरणों की अनुपलब्धता और वित्तीय सहायता का अभाव इस अभियान को कमजोर बना गया।
यदि नाट्यकला को उसके उचित स्थान पर पुनः प्रतिष्ठित किया जाए, तो यह केवल सांस्कृतिक पुनर्जागरण का कार्य नहीं होगा, बल्कि सामाजिक दिशा सुधार का माध्यम भी बनेगा। नाटक केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, वह मनुष्य के चरित्र निर्माण की प्रयोगशाला है। कलाकार जब किसी पात्र को आत्मसात करता है, तो वह भीतर से भी बदलता है। मंच पर संवाद रटने से पहले उसे जीवन के अनुभवों से जोड़ता है, और यहीं से उसका आत्मान्वेषण शुरू होता है।
रंगमंच में सहभागिता से युवा अनुशासन सीखते हैं, विचारशीलता विकसित करते हैं और समूह में कार्य करने की शक्ति अर्जित करते हैं। ये वे गुण हैं जो समाज में न केवल सौंदर्य भरते हैं, बल्कि अपराध और अराजकता को भी कम करने में सहायक होते हैं।
आज की पीढ़ी सोशल मीडिया के छोटे-छोटे वीडियो बना रही है, जहां कंटेंट क्षणभंगुर है और उसमें न कोई आत्मा है, न ही कोई संदेश। नाटक, इसके विपरीत, विचारों की गरिमा और संवाद की परिपक्वता का प्रतीक है।
बोकारो में यदि रंगमंच को फिर से पुनर्जीवित किया जाए तो यह सिर्फ एक सांस्कृतिक कार्य नहीं होगा, यह मानसिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया होगी। यह प्रयास बोकारो के युवाओं को आत्माभिव्यक्ति का एक सशक्त मंच देगा, और उन्हें आंतरिक रूप से परिपक्व बनाएगा।
अब इंतजार है उस बिगुल का, जो बोकारो की चुप पड़ी वादियों में फिर से रंगों की पुकार करेगा। इंतजार है उस निर्देशक का जो मंच पर खड़े होकर फिर से कहेगा — “पर्दा उठता है…” और फिर से बोकारो की रंगभूमि जीवंत होगी, ‘रंगकुम्भ’ सजेगा, उसमें संवाद गूंजेंगे, पात्रों की आत्मा जागेगी, और शहर का सांस्कृतिक हृदय फिर से धड़कने लगेगा।
क्योंकि जब कोई समाज नाटक से जुड़ता है, वह केवल मंच नहीं सजाता — वह अपने भविष्य को संस्कार देता है।
– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’
(कलमकार – कलाकार )