आलेख- धर्मेंद्र नाथ ओझा
शहर कराची ! सूरज डूबने से पहले अचानक सिंधी मोहल्ले के घरों के कई दरवाज़ों की कुंडी एक साथ बजने लगती है। चौथे फ्लोर पे रहनेवाली फैमिली का एक सात साल का बच्चा भागकर बालकनी में आता है। वह देखता है कि दंगाईयों की भीड़ हाथ में छुरा, तलवार और मशाल लेकर दुकानों और तांगे में आग लगा रहे हैं। अचानक दो दंगाई एक अधेड़ आदमी को दौड़ाते हैं और उस बच्चे की बालकनी के नीचे ही अधेड़ आदमी के पीठ में चाकू घोंपते हैं और वे दंगाई दूसरी गली से गायब हो जाते हैं। वह आदमी खून से लथपथ सड़क पर तड़प रहा है। तभी पीछे से एक हाथ आता है और उस बच्चे को अपनी तरफ खींचता है। वह उस बच्चे की माँ होती है। पहली बार वह बच्चा दंगा और क़त्ल का गवाह बनता है। उस बच्चे का नाम होता है गोविंद। जो आज गोविंद निहलानी के नाम से एक बड़े सिनेमेटोग्राफर और फिल्मकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
दोपहर का वक़्त ! कराची में कर्फ्यू लगा है। एक सफेद कपड़े पर कंडे वाले कलम से गोविंद इंकलाब ज़िंदाबाद लिखकर बालकनी में पतंग की तरह लहराते हैं। थोड़ी देर बाद, दंगाईयों की भीड़ उस इमारत पे हमला करती है। घर में चीख पुकार मच जाती है। गोविंद के पिता पुलिस को फोन करते हैं। बात पूरी नहीं होती कि टेलीफोन का तार काट दिया जाता है। एं बच्चों के साथ एक कमरे में खुद को बंद कर लेती है। घर के पुरुषदंगाई दो फ्लोर तक महिल लूट पाट करके तीसरे फ्लोर तक पहुँच जाते हैं। गोविंद के घर की दूसरे कमरे में मौजूद है । दंगाई सीढियाँ चढ़ते चौथे फ्लोर तक पहुंचते हैं तभी पुलिस की सायरन बजती है। सायरन की आवाज़ सुनते दंगाई भाग जाते हैं।
अगले दिन गोविंद के पिता डकोटा एयरलाइन्स से जोधपुर का टिकट ख़रीदते हैं और पूरा परिवार अपना संस्कृत स्कूल, दुकान, बिजनेस और घर छोड़कर जोधपुर पहुँचता है और फिर वहाँ से उदयपुर आकर बस जाता है। 1947 का वो दंगा और दहश गोविंद के मन में इतना असर करता है कि उस खूनी दृश्य और सन्नाटे को 40 साल बाद वह अपनी फिल्म तमस में फिर से ज़िंदा करते हैं।
कराची में गोविंद कभी स्कूल नहीं गए। उनके पिता घर पे ही उनको हिन्दी पढ़ाते और उसके साथ महाभारत और रामायण की कहानियां सुनाते। गोविंद का बाल मन महाभारत के किरदारों से बहुत मुत्तासिर होता है। यह महाभारत का ही असर है कि गोविंद निहलानी की फिल्मों के किरदार बहुत अहम होते हैं। गोविंद का मानना है कि मेरे लिए किरदार बहुत मायने रखता है। उस किरदार को लेकर दिलचस्प कहानी का संसार रचने में यकीन करता हूँ । उदयपुर आने के बाद गोविंद की रूचि ड्राइंग बनाने में होती है। एक चित्रकार से वह ड्राइंग सीखना शुरू करते हैं। गोविंद अपने पिता और चाचा के साथ मंदिर जाते हैं। वहाँ के कृष्ण मंदिर के दीवार पर श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी ढेर सारे भित्तिचित्र को गौर से देखते हैं और चारकोल से सीमेंट के दीवार पर वैसा ही भित्तिचित्र बनाने की कोशिश करते हैं। उनका चचेरा भाई कन्हैया का एक फोटो स्टूडियो है जहाँ गोविंद अक्सर जाते हैं और पहली बार वहीं पर कैमरा और लाइट से परिचित होते हैं।
गोविंद की उम्र के लड़के छुट्टी के दिनों में दिन भर खेलते लेकिन वह उदयपुर की पब्लिक लाइब्रेरी में बैठकर साहित्य और पेंटिंग्स की किताबें पढ़ते। उसी लाइब्रेरी में वह ग्रीक पौराणिक चित्र, रेनेसॉ और रोमन पेंटिंग्स से पहली बार रूबरू होते हैं। उन चित्रों को देखकर गोविंद के अंदर फ्रेमिंग का सेंस विकसित होने लगता है।
1956 में विंसेंट वान गॉग की ज़िंदगी पर आधारित फिल्म ‘लस्ट फॉर लाइफ’ गोविंद देखने जाते हैं। उस फिल्म में देखते हैं एक बहुत बड़े घास के मैदान में वान गॉग कोरा कैनवास के सामने बैठा है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या पेंटिग बनाई जाए। अचानक वह आकाश की तरफ देखता है । उसे आसमान और खुले मैदान के बीच उड़ते हुए कौए नज़र आते हैं। उस नज़ारे को वान गॉग अपने कैनवास पे उतारता है। वह पेंटिंग एक महान कृति बन जाती है। गोविंद को इस शॉट से यह सीख मिलती है कि बहुत ज़्यादा सोचने से कोई महान कृति नहीं घटित होती बल्कि स्वत: प्रेरणा और रचनात्मकता बड़ी कृति को जन्म देती है।
स्कूल के दिनों में अग्फ़ा स्टील कैमरा गोविंद के घरवाले खरीदते हैं। वह गली, नुक्कड़ और झील की तस्वीरें कैमरा में उतारते हैं। वह फ़ैसला करते हैं कि मैं सिनेमेटोग्राफी का कोर्स करूँगा । उनके पिता इसके खिलाफ़ हैं क्योंकि घर की हालात बहुत अच्छी नहीं है। एकदिन परिवार के गुरु ब्रम्हानंदजी आते हैं उनसे पूछा जाता है कि गोविंद कैमरामैन का कोर्स करना चाहता है। गुरुजी कहते हैं अवश्य करे क्योंकि इसकी कुंडली में आर्ट और मशीन से जुड़ा करियर दिखा रहा है। यह नाम कमाएगा।
1962 में गोविंद बंगलोर के एस जे पॉलिटेक्निक इंस्टीट्यूट (अब गवर्नमेंट फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट) से सिनेमेटोग्राफी का डिप्लोमा कोर्स पूरा करते हैं। गोविंद को पता चलता है कि इसी इंस्टीट्यूट के स्टूडेंट गुरूदत्त के सिनेमेटोग्राफर वी के मूर्ति भी हैं। गोविंद उनकी फिल्म प्यासा और कागज़ के फूल की फोटोग्राफी से बहुत प्रभावित हैं। मुम्बई में वह मूर्ति साब से मिलने उनके घर जाते हैं। वह बताते हैं कि एसजेपी का स्टूडेंट हूँ आपके साथ काम करना चाहता हूँ। मूर्ति साब इतने सरल आदमी कि वे उसी रात अंधेरी के फिल्मालय सेट पर गोविंद को बुलाते हैं और प्रमोद चक्रवर्ती की फिल्म ज़िद्दी में अपना असिस्टेंट बना लेते हैं। दूसरे या तीसरे दिन गोविंद मूर्ति साब से पूछने जाते हैं कि अब किस शॉट की लाइटिंग करनी है। मूर्ति साब कहते हैं जब भी डायरेक्टर और सिनेमेटोग्राफर शॉट लगाने के बारे में चर्चा कर रहे हों उनके पास जाके खड़े हो जाओ ध्यान से उनकी बातें सुनो। फिर तुम्हें यह प्रश्न पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
मूर्ति साब को गोविंद सात फिल्मों में असिस्ट करते हैं। मूर्ति साब से वह लाइटिंग, छायांकन की फिलोसॉफी और क्राफ्ट सीखते हैं। मूर्ति साब गोविंद को बताते हैं कि तुम्हारी फोटोग्राफी तब सफल है जब तुम फ्रेम और सृजन से परे कोई बिम्ब रचते हो खूबसूरत तस्वीर और फ्रेम का प्रभाव महत्वपूर्ण होता है लेकिन उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण है उस फ्रेम का इमोशन ।
गोविंद को स्वतंत्र रूप से कुछ डॉक्यूमेंट्री और विज्ञापन फिल्में मिलती है। विज्ञापन और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का डायरेक्टर बहुत पढ़ा लिखा और विज़नरी शख़्स है। वह अपने लेखक विजय तेंदुलकर के साथ हमेशा सामाजिक राजनैतिक मुद्दे पर चर्चा करता है। उस डायरेक्टर का नाम होता है श्याम बेनेगल। उसी ग्रुप में गोविंद की मुलाकात एक प्रतिभशाली नाट्य अभिनेता और लेखक से होती है जिसका नाम है सत्यदेव दुबे। उन लोगों के बीच कभी कभी गिरीश कर्नाड भी बैठक में शामिल होते हैं। इन विद्वतजनों की चर्चा और बहस से गोविंद को बहुत लाभ होता है। सत्यदेव दुबे और तेंदुलकर गोविंद को कई किताबें पढ़ने की सलाह देते हैं। वह साहित्य, इतिहास, कला की किताबें पढ़ना शुरू करते हैं। गोविंद की सोच का दायरा बढ़ने लगता है और देश समाज को देखने की एक व्यापक दृष्टि विकसित होने लगती है। सत्यदेव दुबे उनके बहुत करीबी मित्र बन जाते हैं। गोविंद उनके हर नाटक देखने जाते हैं।
तेंदुलकर का मराठी नाटक ‘ शांतता ! कोर्ट चालू आहे ‘ लोकप्रिय होता है। उस नाटक पर मराठी में फिल्म बनाने का फ़ैसला सत्यदेव दुबे और गोविंद साथ में करते हैं। एन एफ डी सी में लोन का आवेदन देते हैं। फिल्म के लिए लोन पास हो जाता है। गोविंद निहलानी और सत्यदेव दुबे प्रोडक्शन की पहली फिल्म का प्रोडक्शन शुरू होता है। सत्यदेव दुबे फ़िल्म का निर्देशन करते हैं और गोविंद पहली बार स्वतंत्र रूप से फिल्म की सिनेमेटोग्राफी करते हैं।
लेकिन गोविंद के पास लाइट मीटर नहीं होता। वह अपने गुरु मूर्ति के पास जाते हैं। मूर्ति साहब उनको अपना वहीं लाइट मीटर देते हैं जिसका इस्तेमाल उन्होंने प्यासा और कागज़ के फूल में किया था। उस मीटर को आज तक गोविंदजी ने गुरु गिफ्ट के रूप में अपने पास रखा है।
श्याम बेनेगल जब अपनी पहली हिन्दी फ़िल्म अंकुर बनाते हैं सिनेमेटोग्राफर के लिए गोविंद जी का चुनाव करते हैं। दोनों का पॉइंट ऑफ रेफरेंस आपस में बहुत मेल खाता है। मिसाल के तौर पर श्याम बाबू कहते हैं इस शॉट में मुझे चित्रकार रेम्ब्रा या टर्नर की उस पेंटिंग वाली लाइट चाहिए तो गोविंद जी कहते टर्नर नहीं इस शॉट में मुझे रेम्ब्रा की पेन्टिंग दिख रही है। श्याम बाबू और गोविंद जी दस साल तक एक साथ काम करते हैं।
एकदिन विजय तेंदुलकर गोविंद जी को अख़बार में छपी भिवंडी की एक ख़बर सुनाते हैं कि एक आदिवासी मरा हुआ पाया गया है उसके पेट में ज़हर लगा तीर मिला है। उसकी लाश के पास एक दूसरा आदिवासी घूमते हुए पाया गया। पुलिस ने हत्या के जुर्म में उसको गिरफ्तार कर लिया है। गोविंद जी सोचने लगे कि लाश के पास खड़े होने से कोई क़ातिल कैसे हो सकता है भला ? वह मासूम और अनपढ़ आदिवासी को कोर्ट कचहरी के बारे में क्या पता। वह खुद से ज़मानत भी नहीं करवा सकता। उसकी ज़िन्दगी का क्या हश्र होगा इसपर तेंदुलकर और गोविंद जी बातचीत शुरू करते हैं । गोविंद कहते हैं इसपे एक अच्छी फिल्म बन सकती है। तेंदुलकर इस घटना पर स्क्रिप्ट लिखने के लिए राज़ी हो जाते हैं। गुरुदत्त के छोटे भाई देवीदत्त इस फिल्म को एनएफडीसी के सहयोग से प्रोड्यूस करते हैं।
गिरीश कर्नाड जब पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर थे तभी उन्होंने दो प्रतिभावान अभिनेताओं का ज़िक्र किया था उसमें एक का नाम ओम पुरी और दूसरे का नाम नसीरुद्दीन शाह होता है। गोविंद जी कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्मों में इनदोनों के साथ काम कर चुके हैं। गोविंद की आँखों के आगे लाहन्या की भूमिका के लिए ओम पुरी का चेहरा ही नज़र आता है। जबकि उनके साथी उस भूमिका के लिए नसीर का नाम सुझाते हैं। लेकिन गोविंद जी अंततः ओम को चुनते हैं। फिल्म के संवाद सत्यदेव दुबे लिखते हैं। गोविंदजी को ओमपुरी की आँखें बोलती नज़र आती हैं वह लाहन्या को कोई डायलॉग नहीं देते। आक्रोश में लाहन्या अपनी पीड़ा, अपना दर्द और बेचैनी सबकुछ आँखों से व्यक्त करता है। लेकिन फिल्म के क्लाइमेक्स में लाहन्या का चीत्कार दबे कुचले पूरे भारतीय आदिवासियों के चीत्कार में बदल जाता है।
एस डी पन्नवालकर की शॉर्ट स्टोरी ‘सूर्या’ गोविन्द निहलानी पढ़ते हैं उस कहानी पर फिल्म बनाने का फ़ैसला करते हैं। विजय तेंदुलकर उसकी पटकथा लिखते हैं जबकि संवाद की जिम्मेवारी बसंत देव को दी जाती है। लेकिन गोविंदजी को इस फिल्म का कोई अच्छा टाइटल नहीं सूझ रहा है। वह अपने दोस्त सत्यदेव दुबे के कमरे पे जाते हैं। वह दुबेजी से कोई अच्छा टाइटल सुझाने के लिए कहते हैं। दुबेजी कहते हैं पाँच सौ रुपया निकालो अभी टाइटल बताता हूँ। गोविंदजी कहते हैं देता हूँ पाँच सौ रुपया आप पहले बताओ तो सही। दुबेजी दिलीप चित्रे की कविता की एक पंक्ति पढ़ते हैं और उसमें एक शब्द आता है । दुबेजी उस शब्द को दोहराते हुए कहते हैं अर्धसत्य। गोविंद जी खुशी से खिल जाते हैं और उसी समय पाँच सौ रुपया दुबेजी को थमा देते हैं और अपनी उस फिल्म का नाम अर्धसत्य रखते हैं। फिल्म अर्धसत्य, भारतीय पुलिस व्यवस्था में घुली सामंती अवशेषों और मानसिक मूल्यों की व्याख्या है। फिल्म पुलिस सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार और राजनैतिक दबाव को बारीकी से उजागर करती है। यह फ़िल्म पाँच फिल्मफेयर और एक नेशनल अवॉर्ड जीतती है।
रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी की शूटिंग दिल्ली और गुडगाँव में शुरू होती है । एटनबरो की फिल्म गांधी में गोविन्द निहलानी सेकेण्ड यूनिट डायरेक्टर हैं । जो डायरेक्शन के साथ कैमरा भी खुद कर रहे हैं।
एटनबरो गोविन्दजी को सिर्फ़ एक सुझाव देते हैं कि यूरोप में इंडिया की छवि है बहुत जनसंख्या वाला देश । इसलिए फ्रेम में क्राउड (लोगों की भीड़) दीखनी चाहिए ।
गांधी फिल्म के पार्टीशन के कुछ सीन शूट करते हैं इसी बीच शूटिंग से उनको एकदिन का ब्रेक मिलता है । गोविन्द जी दिल्ली के मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर के बुक शॉप में पहुंच जाते हैं वहां उनको भीष्म साहनी की लिखी एक हिन्दी किताब दिखती है जिसका नाम तमस होता है । वह उस किताब को खरीदते हैं । पांच छह दिन बाद फिल्म के ब्रेक के दिन तमस को पढना शुरू करते हैं और उनको किताब इतनी दिलचस्प लगती है कि उसे एकदिन में पढ़ जाते हैं ।
गोविन्द जी ने बचपन में बंटवारे की मारकाट, दंगा, कत्ल और लोगों की बेबस चीखती पुकारती आवाजें जो सुनी और देखी थी तमस को पढ़ते ही उनकी आँखों के आगे सारी घटनाएं चलती फिरती नज़र आने लगती है । वह उसी समय फैसला करते हैं कि इसपर हम फिल्म ज़रुर बनाएंगे ।
गोविन्द जी आक्रोश, अर्धसत्य, विजेता और पार्टी जैसी फ़िल्में बनाने के बाद फिल्म तमस पर काम शुरु करते हैं । गांधी करने के बाद गोविन्द जी को बड़े स्केल की फिल्म बनाने का तजुर्बा और विश्वास आ चुका है ।
फिल्म तमस के लिए ओमपुरी, दीपा शाही, अमरीशपुरी, पंकज कपूर, सईद ज़ाफरी, बेरी जॉन और सुरेखा सीकरी जैसे मंझे हुए कलाकार तुरंत तैयार हो जाते हैं ! भीष्म साहनी खुद इस फिल्म में सूत्रधार के साथ हरनाम सिंह की भूमिका में नज़र आते हैं ! लेकिन इस विवादास्पद घटना पर बन रही फिल्म को प्रोड्यूस करने के लिए कोई निर्माता आगे नहीं आता । आख़िर में श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर और भूमिका के प्रोड्यूसर ललित बिजलानी तमस को प्रोड्यूस करने के लिए तैयार हो जाते हैं ! गोविन्द जी इस फिल्म की शूटिंग पाकिस्तान के लाहौर में करना चाहते हैं लेकिन वहां इजाज़त नही मिलती इसलिए मुम्बई में सेट लगाकर फिल्म का निर्माण किया जाता है ।
गोविन्द निहलानी इस फिल्म को वास्तविक ढंग से शूट करने के लिए अपने गुरु वी के मूर्ति को बुलाते हैं । वी के मूर्ति की लाइटिंग और फ्रेमिंग में पार्टीशन के दर्द, दहशत और इमोशन निकलके बाहर आता है । दूरदर्शन पे फिल्म जैसे ही रिलीज होती है हैदराबाद में दूरदर्शन के ऑफिस को आग लगा दिया जाता है । मुम्बई में भी माहौल तनावग्रस्त हो जाता है । मुम्बई हाईकोर्ट दूरदर्शन पे फिल्म के अगले एपिसोड को दिखाने पे रोक लगा देता है। गोविन्द जी को आठ हफ़्ते तक पुलिस सुरक्षा में रहना पड़ता है । लेकिन देश के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों और ट्रेड यूनियनों के दबाव से कोर्ट अपने फैसले पर पुनर्विचार करता है और तमस के पूरे छह एपिसोड को दूरदर्शन पे दिखाने का आदेश पारित करता है ! कराची के मोहल्ले में घटी घटना को यादों में संजोए गोविन्द निहलानी चालीस साल बाद तमस बनाकर बँटवारे की क्रूरता, नाइंसाफी और अमानवीय बर्बरता से हमे रूबरू कराते हैं !
इसके अलावे द्रोहकाल, हज़ार चौरासी की माँ और देव जैसी अनेक बेहतरीन फिल्में बनाते हैं। गोविंद जी से पूछा गया कि आज के नए युवा फिल्मकारों को क्या संदेश देंगे। वे कहते हैं कि डरो मत, क्योंकि रचनात्मकता आपको ज़िन्दा रहने की ताकत देती है। दूसरे से अपने काम की तुलना कभी मत करो। गुरुदेव टैगोर का कथन है कि रचनात्मक यात्रा अकेले ही शुरू होती है। दूसरे क्या कह रहे हैं उसपर ध्यान मत दो। आपके पंख के नीचे अपार हवा मौजूद है। अपने दृढ़ संकल्प और लगन से आप एक पल में आसमान की ऊंचाई छू सकते हो ।