सीख माँ की………. – प्रशान्त करण

हम में से पंचानवे प्रतिशत लोग स्वयं गलतियाँ कर सीखते हैं और शेष पाँच प्रतिशत लोग ही दूसरों की गलतियों से सीख पाते हैं. लेकिन इससे अलग माँ की सीख की गाँठ स्वतः मजबूती से बँध जाती है. प्रथम गुरु और बचपन की सीख ऐसी ही होती है. कुछ शैतान और नटखट बच्चे माँ की सीख के उल्टा करते हैं और वह भी तुरंत व माता के ही समक्ष. लेकिन जब झटका लगता है तो तुरंत कभी न भूलने के लिए सीख ले लेते हैं. चाहे यह झटका एक करारे थप्पड़ अथवा कठिन दंड के रूप में क्यों न हो. सीख के लिए झटका भी आवश्यक है.

 माँ से सीख लेने के साधकों की कई श्रेणियाँ पायी जाती हैं. एक तो सर्वसाधारण श्रेणी के साधक, जो बहुतायत में पाए जाते हैं. वे अपनी माँ के द्वारा दी गयी सीख से जीवन बिताते हैं. दूसरी श्रेणी के साधक विवाहोपरांत भी अपनी माँ की सीख की लिक पकड़े रहते हैं और उधर उनकी धर्मपत्नी अपनी माँ की सीख हर दिन प्राप्त करती हुयी अपने पति पर नियंत्रण का शिकंजा कसती जाती हैं. पति को अपनी माँ की सीख का त्याग कर अपने बच्चों की माँ की सीख पर सारा ध्यान केंद्रित करने पर विवश होना पड़ता है. तीसरी श्रेणी की विप्लुप्तीकरण की ओर अग्रसर प्रजाति की वे पत्नियाँ पायी जाती हैं , जो विवाहोपरांत अपने सासु माँ की सीख पर चल पड़ती हैं. चौथी श्रेणी के पति घरजवाईं होते हैं और अपनी सासु माँ की सीख पर गांठों पर गांठे बाँधने में व्यस्त हो जाते हैं. जब भी समय मिलता है तो उनकी गिद्ध दृष्टि ससुराल की सम्पत्ति पर टिक जाती है. पाँचवीं श्रेणी के साधक कुर्सी को माता मानकर उनकी गोद में बैठ शिक्षा लेते रहते हैं और एक के बाद माँ बदलते हुए उर्ध्वगामी होते रहते हैं. छठी श्रेणी के साधक उत्कृष्ट होते हैं और वे लक्ष्मी को माँ मानकर उनकी सीख पर चलते हुए सफलता के साथ सरलता से सम्पन्नता को निरंतर प्राप्त होते रहते हैं.

 एक कथा बड़ी प्रासांगिक है. एक अनाथालय के दो बच्चे, जिन्होँने अपनी माँ को नहीं देखा था, बड़े अच्छे मित्र थे. कालांतर में दोनों अलग -अलग माताओं द्वारा सात वर्ष की आयु में गोद लिए गए. दोनों के बिछुड़ते समय यह प्रतिज्ञा की कि हम बीस वर्षों के बाद आज ही के दिन इसी स्थान पर मिलेंगे.

 एक बच्चे की माता धनाढ्य थी और उसने सीख दी कि सद्गुणों को धारण कर विद्वान् बनो. विद्व्ता सबसे बड़ा मित्र है.वह खूब मन से पढ़ने लगा. स्नात्कोत्तर के बाद पीएचडी किया. दुर्भाग्य से उसकी माता की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी थी. उसे विद्व्ता रहते हुए भी कहीं नौकरी नहीं मिली तो अंत में एक निजी विद्यालय में शिक्षक हो गया. दूसरे बच्चे की माँ अपेक्षाकृत निर्धन थी. उसने उसे सीख दी कि किसी भी प्रकार से धन संचय करना. निर्धनता मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है. वह बालक चतुराई से किसी प्रकार दसवीं उत्तीर्ण कर धनोपार्जन में लग गया. आड़े – तिरछे उसने अनेक दुर्गुणों को धारण करते हुए अपार धन -ऐश्वर्य का स्वामी बन बैठा.अब सभी उसकी खूब इज्जत करते.

 बीस वर्षों के बाद निर्धारित स्थान पर दोनों मिले और एक दूसरे के वृतांत सुनकर गले लगकर खूब रोए. दोनों ने एक – दूसरे से पूछा – माँ की सीख सही थी न ?दोनों निरुत्तर होकर कभी न मिलने के किये अलग हो चल दिए.