लखन भए राम चरन अनुरागी ….. – ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

जब प्रभु श्री राम बन को चलने लगे तो लक्ष्मण जी भी जाने को तैयार हो गए और सब कुछ त्याग कर श्री राम जी के साथ बन को चल दिये । श्री राम चरण में अनुराग हीं उनका एक मात्र धर्म था । एक उदाहरण देखिए, भरत जी जब श्री राम जी को मनाने बन में गए तो जैसे हीं कुटिया में प्रवेश किए, लक्ष्मण जी समझ गए कि ये भरत जी हैं । उस समय लक्ष्मण जी प्रभु के प्रश्नो का उत्तर दे रहे थे । उनका पीठ भरत जी की ओर था फिर भी भरत जी के पैरों की आहट से लक्ष्मण जी समझ गए कि भरत जी आगए हैं । भ्रातृ प्रेम में उनका मन भरत जी की ओर खींचने लगा दूसरी ओर प्रभु सेवा में रहने के कारण उनका मन प्रभु की ओर खींच रहा है । दुबिधात्मक स्थिति हो गई लक्ष्मण जी की । आखिरकार लक्ष्मण जी अपने सेवा धर्म का विचार कर उसी पर दृढ़ रहे । भरत जी की ओर घुम कर नहीं देखा और प्रभु से कहा कि भरत जी आगए हैं । ऐसा था लक्ष्मण जी का सेवा धर्म जिसके आगे उन्होंने भ्रातृ प्रेम को भी त्याग दिया । इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—-

लखन भए राम चरन अनुरागी ।
लखन चले बन राम के पीछे ,
सुख सम्पति सब त्यागी ।
सहे बिपिन हिम आतप बाता ,
मन हरि चरनन लागी ।।
लखन भए राम चरन………..
भरत गए जब राम से मिलने ,
भ्रातृ प्रेम तब जागी ।।
सेवक धर्म विचारि लखन ने ,
भ्रातृ प्रेम को त्यागी ।।
लखन भए राम चरन………..
चौदह बरस आँख नहीं झपकी ,
राम चरन चित लागी ।।
शक्ती बान सहे लछुमन ने ,
सिया राम हित लागी ।।
लखन भए राम चरन………..

रचनाकार

  ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र