जब प्रभु श्री राम बन को चलने लगे तो लक्ष्मण जी भी जाने को तैयार हो गए और सब कुछ त्याग कर श्री राम जी के साथ बन को चल दिये । श्री राम चरण में अनुराग हीं उनका एक मात्र धर्म था । एक उदाहरण देखिए, भरत जी जब श्री राम जी को मनाने बन में गए तो जैसे हीं कुटिया में प्रवेश किए, लक्ष्मण जी समझ गए कि ये भरत जी हैं । उस समय लक्ष्मण जी प्रभु के प्रश्नो का उत्तर दे रहे थे । उनका पीठ भरत जी की ओर था फिर भी भरत जी के पैरों की आहट से लक्ष्मण जी समझ गए कि भरत जी आगए हैं । भ्रातृ प्रेम में उनका मन भरत जी की ओर खींचने लगा दूसरी ओर प्रभु सेवा में रहने के कारण उनका मन प्रभु की ओर खींच रहा है । दुबिधात्मक स्थिति हो गई लक्ष्मण जी की । आखिरकार लक्ष्मण जी अपने सेवा धर्म का विचार कर उसी पर दृढ़ रहे । भरत जी की ओर घुम कर नहीं देखा और प्रभु से कहा कि भरत जी आगए हैं । ऐसा था लक्ष्मण जी का सेवा धर्म जिसके आगे उन्होंने भ्रातृ प्रेम को भी त्याग दिया । इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—-
लखन भए राम चरन अनुरागी ।
लखन चले बन राम के पीछे ,
सुख सम्पति सब त्यागी ।
सहे बिपिन हिम आतप बाता ,
मन हरि चरनन लागी ।।
लखन भए राम चरन………..
भरत गए जब राम से मिलने ,
भ्रातृ प्रेम तब जागी ।।
सेवक धर्म विचारि लखन ने ,
भ्रातृ प्रेम को त्यागी ।।
लखन भए राम चरन………..
चौदह बरस आँख नहीं झपकी ,
राम चरन चित लागी ।।
शक्ती बान सहे लछुमन ने ,
सिया राम हित लागी ।।
लखन भए राम चरन………..
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र