विद्वतजनों
विगत सात दिनों के निरंतर पठन-पाठन, समझने के प्रयास व अल्प बुद्धि से चिंतन के बाद ऋग्वेद की प्रथम ऋचा
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य मृत्विजय .
होतारं रत्नघातवम .
का जो अर्थ मैंने समझा, उसे साझा करना चाहता हूँ.
उसके पूर्व यह बताना चाहता हूँ कि पहली ऋचा अन्य पाँच क्रमबद्ध ऋचाओं से विचार, भाव, शैलीमें जुडी हैं. वेद की भाषा और इनका व्याकरण आज की संस्कृत भाषा से भिन्न है और शाब्दिक अर्थ से हम असमजंस में पड़ उस ज्ञान के मार्ग से विचलित हो जाते हैं. ऐसा आरोप वेद विद्वान् सायन पर भी लगा है . बहुत से विद्वानों को पढ़ने के बाद जो साधारण समझ के लिए अर्थ प्रकट होता है, उसकी व्याख्या महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सरलता से उल्लेख किया.
पहली इस ऋचा का सामान्य अर्थ उनके अनुसार निम्न आशय का मिला –
(अग्निं ईळे) अग्नि स्वरूप परमात्मा की उपासना करता हूँ, (पुरोहितं) जो सबका हित साधक है। (यज्ञस्य देव) यज्ञ का मुख्य देवता और ऋत्विक है। (होतारं) यज्ञ करने वाले के लिए (रत्नधातमम्) रत्नों को धारण करता है।
लेकिन इस पर अपनी लघु क्षमता और लघु चिंतन से मुझे जो समझ आया वह इस प्रकार है. इसके लिए पहले इस ऋचा में प्रत्युत शब्दों के मानक अर्थ समझना होगा. ॐ शब्द अनंत ब्रह्माण्ड में गूँजती हुई वह शक्ति है, जो अनंत, अविनाशी, असीम शक्ति ईश्वर के समीप पँहुचने का द्वार खोलता है. वेद में एक शब्द के अनेक अर्थ, संदर्भ प्रकट होते हैं. अग्नि को प्रकाश , अंधकार-अज्ञानता को मिटाने, सत्य को प्रकट करने, ऊर्जा प्रदान करने और हमारे धरातल से हमें ऊपर उठाने, उर्ध्वगामी शक्ति के रूप में विश्लेषित किया गया है. ईले, इल्लै, इळे, ईळे, ईड़े शब्द का अर्थ सरस्वती, शब्दों की शक्ति, भोजन की शक्ति आदि के अर्थ में प्रकट होता है. यज्ञ देवताओं को आह्वाहित करने, उनके प्रति समर्पण के लिए उद्धृत होने, उन्हें प्रसन्न करने की क्रिया के रूप में लिया गया है. पुरोहित का अर्थ यज्ञ में मार्गदर्शन और सहायता करने वाले के आदि अर्थ में प्रत्युत हुआ है. मृत्विजय का अर्थ मृत्यु से विजय न होकर जड़ से चेतन, अंधकार से प्रकाश, वर्तमान मानसिक स्थिति से निकल उर्ध्वगामी होने और ईश्वर के सामीप्य को प्राप्त करने के प्रयास आदि के अर्थ में आया है. होता का अर्थ यज्ञ करने वाला, हवि समर्पित करने वाले के अर्थ में आया है. रत्नघातकम का अर्थ रत्नों, जो साधारण परिस्थिति में छिपे मिलते हैं और अदम्य प्रयास से उपलब्ध होते हैं, को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करने के अर्थ आदि में आया है. अब हम इसकी सहायता से पहली ऋचा को अपनी कल्पनाशक्ति से समझने का प्रयास करते हैं.
ॐ का उच्चारण कर हम उस परम् ईश्वरीय शक्ति की ओर बढ़ने का द्वार खोलते हुए स्वयं को ज्ञान प्राप्ति के लिए शक्ति, प्रकाश के दाता अग्नि देवता को आह्वाहित करते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं कि ज्ञान प्राप्ति के इस यज्ञ में आप मेरे पुरोहित और स्वयं होता भी बनें, मुझे ज्ञान के वर्तमान अंधकार से प्रकाश, जड़ से चेतन की ओर ले जाने की शक्ति और सामर्थ दें ताकि हम उर्ध्वगामी होकर ज्ञान के रत्न को पाने के सतत प्रयत्न की ओर बढ़ें.
– डॉ प्रशान्त करण