सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ उसकी पारदर्शी और जवाबदेह राजनीतिक व्यवस्था होती है। और जब वही व्यवस्था सवालों के घेरे में आ जाए, तो न केवल एक प्रतिनिधि की साख बल्कि पूरे लोकतांत्रिक तंत्र की विश्वसनीयता भी दांव पर लग जाती है। झारखंड की बोकारो विधानसभा सीट से निर्वाचित विधायक श्वेता सिंह पर मंडराता “ऑफिस ऑफ प्रॉफिट”, फर्जी दस्तावेज़ों और बकाया भुगतान का संकट एक ऐसा ही मामला है, जिसमें व्यक्तिगत आरोपों से अधिक व्यापक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों की परीक्षा हो रही है।
सत्ता की सुविधा या सार्वजनिक विश्वास का दोहन?
श्वेता सिंह पर सबसे पहला आरोप यही है कि उन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव का उपयोग करते हुए बीएसएल (बोकारो स्टील लिमिटेड) और एचएससीएल (हिंदुस्तान स्टील कंस्ट्रक्शन लिमिटेड) की संपत्तियों को हासिल किया। यह आरोप मात्र सरकारी आवास लेने तक सीमित नहीं है, बल्कि उन आवासों का किराया और बिजली शुल्क भी लंबे समय से बकाया है। सेक्टर 03 D/562 स्थित एक आवास पर 2.77 लाख रुपये और सेक्टर 03 A/873 पर 97 हजार रुपये का बकाया—यह संयोग नहीं, बल्कि सत्ता के घमंड का प्रमाण है। इससे भी बड़ी बात यह है कि उन्होंने “ब्रह्मा सर्विस सोसाइटी” की सचिव होने के नाम पर एक अतिरिक्त आवास प्राप्त किया, जो सीधे-सीधे ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ की श्रेणी में आता है।
झूठ की नींव पर खड़ी सियासत
इस मामले की शुरुआत पूर्व विधायक विरंची नारायण की एक ठोस और तथ्यों पर आधारित शिकायत से हुई थी, जिसमें उन्होंने श्वेता सिंह पर दो पैन कार्ड और चार वोटर आईडी कार्ड रखने, फर्जी दस्तावेजों का इस्तेमाल करने और चुनावी शपथ पत्र में झूठी जानकारी देने जैसे गंभीर आरोप लगाए थे। अगर ये आरोप सही साबित होते हैं, तो यह न केवल जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का उल्लंघन है, बल्कि नैतिक दृष्टिकोण से भी गंभीर अपराध है।
यहाँ यह सवाल भी उठता है कि अगर एक विधायक स्तर का जनप्रतिनिधि अपने शपथ पत्र में गलत जानकारी देने का साहस करता है, तो आम नागरिक किस भरोसे पर अपने जनप्रतिनिधियों को चुनेगा? क्या यह जनता के उस विश्वास का अपमान नहीं है, जो उसने उन्हें वोट के रूप में दिया?
निष्पक्ष जांच या औपचारिकता?
झारखंड के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के. रवि कुमार की ओर से केंद्रीय चुनाव आयोग को भेजी गई रिपोर्ट में साफ संकेत मिलते हैं कि श्वेता सिंह पर लगे आरोपों में दम है। रिपोर्ट के अनुसार, आयकर विभाग ने दो पैन कार्ड की पुष्टि कर दी है और बिहार चुनाव आयोग ने भी मतदाता पहचान पत्रों में अनियमितता को लेकर रिपोर्ट दी है। चास के एसडीओ को छोड़ सभी अधिकारियों की रिपोर्टें 5 जून तक प्राप्त हो चुकी हैं, जो दर्शाती हैं कि राज्य स्तर पर मामले को गंभीरता से लिया गया है।
अब सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय चुनाव आयोग भी इस मामले में उतनी ही निष्पक्षता और तत्परता से निर्णय लेगा? क्योंकि निर्णय अब उनके पाले में है, और जो भी फैसला होगा, वह न केवल श्वेता सिंह की विधायकी बल्कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और प्रतिष्ठा पर भी सीधी टिप्पणी होगी।
जनप्रतिनिधित्व की मर्यादा और हमारी जिम्मेदारी
यह मामला हमें एक और दिशा में सोचने को विवश करता है—हमारे प्रतिनिधि, जिन्हें हम विश्वास के साथ चुनते हैं, वे उस विश्वास के साथ क्या कर रहे हैं? क्या हमारी राजनीतिक व्यवस्था इतनी कमजोर हो चुकी है कि जनप्रतिनिधियों के लिए सत्य, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व केवल भाषणों तक सीमित रह गया है?
अगर श्वेता सिंह दोषी पाई जाती हैं और उनकी सदस्यता रद्द होती है, तो यह एक चेतावनी होगी उन सभी जनप्रतिनिधियों के लिए जो सत्ता को सुविधा और अधिकार का माध्यम समझते हैं, न कि सेवा और उत्तरदायित्व का।
राजनीति में नैतिकता की जगह कहाँ?
यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने गंभीर आरोपों के बावजूद न तो विधायक स्वयं सफाई देने के लिए सामने आई हैं और न ही उनकी पार्टी ने कोई आधिकारिक रुख स्पष्ट किया है। यह चुप्पी कहीं न कहीं सियासी रणनीति का हिस्सा भी हो सकती है—”जब तक फैसला न आए, तब तक टालो”।
लेकिन क्या यही राजनीति का चरित्र होना चाहिए? क्या लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों की नैतिक जिम्मेदारी सिर्फ कानून के डर से तय होगी? क्या यह सही नहीं होगा कि एक जनप्रतिनिधि स्वयं सामने आकर जनता के सवालों का जवाब दे, और अगर गलती हुई है तो सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगे और पद छोड़ दे?
एक प्रतिनिधि नहीं, एक चेतावनी
श्वेता सिंह का मामला सिर्फ एक विधायक की सदस्यता का नहीं है। यह एक व्यापक राजनीतिक चेतावनी है कि अगर समय रहते राजनीतिक पारदर्शिता और जवाबदेही पर ध्यान नहीं दिया गया, तो लोकतंत्र की नींव ही हिल सकती है।
अब यह केंद्रीय चुनाव आयोग पर है कि वह इस मामले में कितनी दृढ़ता और निष्पक्षता से निर्णय करता है। अगर उन्होंने तथ्यों के आधार पर निर्णय लिया और दोषी पाए जाने पर कठोर कार्रवाई की, तो यह न केवल लोकतंत्र की साख को बचाएगा, बल्कि एक स्पष्ट संदेश देगा कि लोकतंत्र में किसी को भी कानून और नैतिकता से ऊपर नहीं माना जा सकता—चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो।
आज जरूरत है राजनीति में नैतिक पुनर्जागरण की। यह तभी संभव है जब ऐसे मामलों को केवल राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का हथियार न बनाकर, लोकतंत्र की मर्यादा को सुरक्षित रखने के अवसर के रूप में देखा जाए। श्वेता सिंह की विधायकी पर आया यह संकट एक चेतावनी है—सत्ता सेवा का माध्यम होनी चाहिए, स्वार्थ का नहीं।