भारतीय मीडिया में दलित संपादक: जातिवाद की नई व्याख्या या बौद्धिक पतन?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश। 

अगर आप भारतीय मीडिया में दलित संपादकों की संख्या जानने का प्रयास कर रहे हैं, तो बधाई हो! आप उस जटिल और विवादास्पद खेल में शामिल हो गए हैं, जिसे समझने के लिए असली समझ की बजाय “जातीय चश्मा” पहनने की ज़रूरत है। इस खेल में मुख्य उद्देश्य तथ्यों और तर्कों से नहीं, बल्कि जातीय दृष्टिकोण से जीवन के हर हिस्से को देखना होता है। यह वही खेल है, जिसने कभी भारतीय राजनीति को बर्बाद किया था और अब यह मीडिया के संवेदनशील और प्रबुद्ध स्थानों में प्रवेश कर चुका है।

बात करें संपादक पद की, तो यह वैसा ही है जैसे कि एक पायलट हो, जिसे विमान उड़ाने के लिए केवल अपनी योग्यता और कौशल के आधार पर आंका जाता है, लेकिन अगर कोई कहे कि “इस विमान को दलित पायलट क्यों नहीं उड़ा रहा?” तो यह सवाल खुद में बौद्धिक पतन का प्रतीक होगा। और अगर इस पर कोई बहस भी शुरू हो जाती है, तो समझ लीजिए कि हम उस जगह पहुँच चुके हैं जहाँ तर्क और बुद्धिमत्ता से ज्यादा जातिवादी नज़रिया और राजनीतिक एजेंडा हावी हो चुका है।

इस नए ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग को लगता है कि हर स्थान, हर कार्य और हर व्यक्ति को उसकी जातीय पहचान से देखा जाना चाहिए। संपादक जैसे पद को, जिसे बौद्धिकता और नैतिकता की मिसाल माना जाता है, जातिवादी तराजू पर तौलने की यह कोशिश किसी मनोरंजक तमाशे से कम नहीं है। सवाल उठता है कि क्या संपादक का पद योग्यता, अनुभव और नैतिक बल से संचालित होना चाहिए या फिर इसे भी जातीय पन्नों में समेट देना चाहिए?

जो लोग संपादक जैसे प्रतिष्ठित पद पर भी जातिवाद खोजने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें कौन समझाए कि संपादक बनना किसी जाति विशेष का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि योग्यता, अनुभव और निष्ठा का प्रमाण होता है। मीडिया का संपादक वह होता है, जो समाज को सही दिशा में ले जाने का काम करता है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह तथ्यों की जांच-परख कर, सही समय पर सही खबरें प्रस्तुत करे, ताकि समाज का सही रूप दुनिया के सामने आ सके।

परन्तु आज का यह दौर बौद्धिक पतन का है। पहले राजनीति, फिर नौकरशाही, और अब मीडिया, हर जगह जातीय पहचान को महत्व देने की यह प्रवृत्ति भारतीय समाज को विघटन की ओर ले जा रही है।

मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्षता की बात हमेशा से होती रही है, लेकिन जब आप मीडिया के सबसे ऊंचे पायदान—संपादक के पद—को जातीय पहचान के आधार पर जांचने लगते हैं, तो इसका मतलब है कि आप उस संस्थान की स्वतंत्रता पर ही प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। संपादक की कुर्सी एक पायलट की सीट की तरह है, जहाँ से समाज का भविष्य तय किया जाता है। इस कुर्सी पर जातीय पहचान का सवाल खड़ा करना अपने आप में बौद्धिक पतन का सूचक है।

अगर संपादक की नियुक्ति उसके काम, उसके अनुभव और उसकी योग्यता के आधार पर न हो, और इसके बजाय जातीय समीकरणों को देखकर की जाए, तो हम किस तरह की पत्रकारिता की उम्मीद कर सकते हैं?

यह किसी तरह की समझ का आभाव है या फिर घटिया राजनीति का हिस्सा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि जो लोग मीडिया जैसे प्रबुद्ध क्षेत्र में भी जातिवाद को खींचने की कोशिश कर रहे हैं, वे न केवल देशद्रोही हैं, बल्कि मानवद्रोही भी हैं।

मीडिया को “लोकतंत्र का चौथा स्तंभ” कहा जाता है। यह वह माध्यम है, जो जनता को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है। यहां पर जातिवाद का सवाल उठाना एक तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। अगर मीडिया में भी जाति आधारित विभाजन होने लगे, तो फिर क्या बचेगा? संपादक का काम समाज की आवाज़ को दिशा देना है, लेकिन जब उसकी जाति का सवाल खड़ा कर दिया जाता है, तो इसका मतलब है कि हम उसकी योग्यता को नज़रअंदाज कर रहे हैं।

जातिवादी राजनीति करने वाले लोग असल में उस समाज के खिलाफ काम कर रहे हैं, जिसमें सभी को समानता का अधिकार है। ये वही लोग हैं, जो भारतीय संविधान के उस आधार को कमजोर कर रहे हैं, जो कहता है कि हर व्यक्ति को उसकी योग्यता के आधार पर आंका जाएगा, न कि उसकी जाति के आधार पर।

मीडिया के संपादक का कार्य सिर्फ खबरें देना नहीं होता, बल्कि खबरों को सही रूप में परोसना भी होता है। एक संपादक वह व्यक्ति होता है, जो हर खबर की गहराई को समझता है, उसकी पृष्ठभूमि की जांच करता है और फिर उसे समाज के सामने पेश करता है। उसकी जिम्मेदारी केवल खबरों तक सीमित नहीं होती, बल्कि वह समाज की सोच और दिशा तय करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

लेकिन जब आप यह सवाल खड़ा करते हैं कि मीडिया में दलित संपादक कितने हैं, तो आप उसकी योग्यता को नहीं, बल्कि उसकी जाति को देख रहे होते हैं। और यही वह सोच है, जो समाज को विखंडित कर रही है।

संपादक बनने के लिए आपको न केवल विषय पर पकड़ होनी चाहिए, बल्कि आपके पास वह दृष्टिकोण भी होना चाहिए जो किसी भी खबर को गहराई से समझ सके। संपादक किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से ऊपर उठकर काम करता है। उसकी भूमिका समाज के लिए मार्गदर्शक की तरह होती है।

लेकिन जब लोग इस बात पर बहस करने लगते हैं कि संपादक दलित होना चाहिए या ब्राह्मण, तब यह समाज के बौद्धिक पतन का स्पष्ट संकेत है। जो लोग इस बहस को तूल दे रहे हैं, वे समझ से अछूते और राजनीति के गंदे खेल में उलझे हुए लोग हैं।

जातिवाद की यह नई लहर समाज के हर हिस्से को प्रभावित कर रही है। राजनीति में तो पहले ही जातीय समीकरणों का बोलबाला था, लेकिन अब इसे मीडिया जैसे क्षेत्रों में भी खींचना समाज के विखंडन की ओर इशारा करता है।

मीडिया को समाज का आइना कहा जाता है, लेकिन अगर यह आइना भी जातीय धुंध से भर दिया जाएगा, तो क्या समाज की सच्ची तस्वीर सामने आ पाएगी?

यह सोच केवल समाज को और विभाजित करेगी। ये वही लोग हैं, जो समाज को बांटने का काम कर रहे हैं और इसे अपनी घटिया राजनीति का हिस्सा बना रहे हैं।

इस पूरे खेल में सबसे बड़ी समस्या यह है कि अब “घटिया विद्वानों” की एक नई खेप तैयार हो गई है, जो हर चीज़ को जातिवाद के चश्मे से देखती है। अगर कोई व्यक्ति मेहनत और योग्यता के बल पर संपादक बनता है, तो उसे उसकी जाति के आधार पर नहीं आंका जा सकता। लेकिन इस नई खेप का तर्क यही है कि हर क्षेत्र में जातिगत आरक्षण होना चाहिए, ताकि समाज में समानता लाई जा सके।

यह तर्क सिर्फ समाज को कमजोर करने का एक और तरीका है। योग्यता का कोई विकल्प नहीं हो सकता। अगर आप जातीय विभाजन को हर जगह लागू करने की कोशिश करेंगे, तो समाज में वास्तविक समानता नहीं, बल्कि असमानता बढ़ेगी।

आज का दौर बौद्धिक पतन का है, जहाँ हर मुद्दे को जातिवाद से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। मीडिया, जो समाज को सही दिशा में ले जाने का काम करता है, उसमें भी अब जातिवाद की बात उठाई जा रही है।

जो लोग संपादक जैसे उच्च पद पर भी जातिवाद देख रहे हैं, वे न केवल समझ से अछूते हैं, बल्कि वे घटिया राजनीति का भी हिस्सा हैं। यह खेल देश और समाज दोनों के लिए हानिकारक है।

जो लोग इस खेल को बढ़ावा दे रहे हैं, वे असल में देशद्रोही और मानवद्रोही हैं, क्योंकि वे समाज को बांटने और कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं। जातिवाद की इस राजनीति को समाप्त करना आवश्यक है, ताकि हम एक समान और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कर सकें।

समाज की असली बुराई जातिवाद नहीं, बल्कि उस जातिवादी सोच का समर्थन करना है जो हर क्षेत्र को इससे जोड़ती है। यह मीडिया में भी घुसपैठ कर चुकी है, और इसे दूर करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।