राजनीतिक बावड़ी के तीन अवतार – झंडा ढोने वाले, कुर्सी छैकने वाले और सूरज को सलाम करने वाले

– पूर्णेन्दु सिन्हा पुष्पेश

…..सच पूछें तो किसी भी राजनीतिक पार्टी में तीन गुट होते हैं। एक तो पदासीनगण, जैसे विधायक वर्ग या सांसद वर्ग। इनमें से अनेक कुंडली मारकर बैठे होते हैं, जमे हुए पानी की बावड़ी की तरह, जिसमें कालांतर में सड़ांध बढ़ती ही रहती है। उनमें भी खासकर उन पर यह बात ज्यादा लागू होती है, जो न्यूनतम दो टर्म से कुर्सी छैक के बैठे होते हैं, सिर्फ अपने आलाकमानों की चमचागीरी करके। ये वो हैं जिन्हें जनता से कोई सरोकार नहीं होता और ना ही जनता को इनसे। ये बस चुनाव इस नाते जीत चुके होते हैं, क्योंकि जनता का उस पार्टी विशेष से प्रेम होता है और मजबूरी में इन्हें वोट देकर उदास मन से घर लौट जाते हैं। अपने आलाकमानों की कृपा से इन्हें बार-बार टिकट मिल ही जाता है। साथ ही यह भी सही है कि इन आलाकमानों के अपने कैलकुलेशन्स होंगे, पर जनता का कैलकुलेशन समझना भी इन्हीं आलाकमानों का काम है। खैर! ऐसे विधायकों या सांसदों को अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से भी कोई मतलब नहीं होता। ये बस अपने गुट के चमचों के साथ राज भोग रहे होते हैं। विडंबना यह है कि ऐसे महामानव समय के साथ खुद में परिवर्तन नहीं लाना चाहते। ऐसी पुरानी पीढ़ियां नई पीढ़ियों को संवारना-तराशना तो दूर, उल्टा उन्हें दुरदुराते रहते हैं। नई पीढ़ी को आगे नहीं आने देना चाहते। इनके प्रताप से जनता धीरे-धीरे उक्त पार्टी से विरक्त होती जाती है और आलाकमानों को इसकी भनक तक नहीं लगती। ऐसे क्षेत्रों में यह ज्यादा होता है, जहाँ इनके आलाकमान कार्यकर्ताओं से नहीं मिलते। मिलते भी हैं तो कार्यकर्ताओं को नहीं सुनते। अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत…! राष्ट्र की राष्ट्रीय पार्टियों में समयानुसार अपने प्रतिनिधियों में परिवर्तन करना ही पड़ता है। खुद देखिए, जहाँ-जहाँ समय रहते परिवर्तन लाया गया, वहाँ पार्टी खाई में गिरते-गिरते बच गई। और फिर इतना बड़ा उदाहरण तो सामने है, एक राष्ट्रीय पुरानी पार्टी है जो किसी भी हालत में अपने केंद्रीय नेतृत्व में परिवर्तन नहीं लाना चाहती और पार्टी दिन-प्रतिदिन गर्त में समाती जा रही है।

दूसरा गुट – झंडा ढोने वालों का दु:ख

इस गुट के कार्यकर्ता पूरे जोश और उम्मीद के साथ पार्टी के बैनर तले काम में जुटे रहते हैं। ये वो लोग हैं जो दिन-रात पसीना बहाते हैं, हर छोटी-बड़ी सभा में झंडा लहराते हैं, नारों में सबसे ऊंची आवाज में जोश भरते हैं, और इलाके की गलियों से लेकर सोशल मीडिया तक हर मोर्चे पर पार्टी का झंडा उठाए रखते हैं। लेकिन इनका दुर्भाग्य यह है कि ये झंडा उठाने के लिए ही पैदा हुए हैं, क्योंकि इनका असल राजनैतिक भविष्य धुंधला ही रहता है। पुरानी पीढ़ी के नेता इन्हें ‘झंडा ढोने वाला’ समझते हैं और इनके जोश और समर्पण को नजरअंदाज कर देते हैं।

इनके लिए राजनीति में तरक्की की सीढ़ियां गुप्त हैं, जिन्हें चढ़ने का सपना देखना मना है। अगर गलती से कोई युवा कार्यकर्ता इन सीढ़ियों पर चढ़ने की कोशिश करता भी है, तो ऊपर बैठी पुरानी पीढ़ी उसका रास्ता काट देती है, जैसे किसी पुराने ताले में कुंजी अटका दी जाए। उनका मकसद होता है—न तो खुद हटेंगे और न दूसरों को आगे बढ़ने देंगे।

आखिरकार, यह युवा कार्यकर्ता या तो हताश होकर घर बैठ जाता है या फिर खुद को इस खेल में मोहरे की तरह समझकर संतोष कर लेता है कि उसकी भूमिका सिर्फ झंडा ढोने तक सीमित है। सवाल यह है कि जब नई पीढ़ी को आगे आने का मौका ही नहीं मिलेगा, तो पार्टी का भविष्य क्या होगा? ऐसी स्थिति में पार्टी को कौन बचाएगा? पर शायद पुरानी पीढ़ी को इसका अंदाजा नहीं है, क्योंकि वे तो बस अपनी कुर्सी पर जमे रहने की कला में माहिर हैं।

तीसरा गुट – सूरज को सलाम करने वाले :

अब बात करें तीसरे गुट की, तो ये वे ‘धनाढ्य’, ‘बाहुबली’, ‘मौकापरस्त’ लोग हैं, जो राजनीति को एक अवसर के रूप में देखते हैं। इनका उद्देश्य जनता की सेवा कम और अपने व्यक्तिगत लाभ ज्यादा होते हैं। जब पुरानी पार्टी में इनकी ‘दाल नहीं गलती,’ तब ये समय की नब्ज पहचान कर नई पार्टी में ‘दाल’ गलाने आ जाते हैं।

मौका देखकर ये नई पार्टी में शामिल होते हैं और आते ही पार्टी के पुराने मेहनती कार्यकर्ताओं के बीच असंतोष फैला देते हैं। ये बाहुबली नेता अपने पैसे और ताकत के बल पर पार्टी में ऊंचे पदों पर काबिज हो जाते हैं, जबकि सालों से मेहनत कर रहे कार्यकर्ता हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं।

इन्हें देखकर पुराने कार्यकर्ताओं के मन में एक सवाल उठता है—”हमने तो पार्टी के लिए जी-जान लगा दी, पर हमें क्या मिला?” ऐसे माहौल में, धीरे-धीरे वे कार्यकर्ता जो वफादारी से पार्टी के लिए काम कर रहे थे, हताश होकर घर बैठ जाते हैं। नई पार्टी में आने वाले ये बाहुबली नेता जब तक अपना मतलब साधते हैं, तब तक पार्टी की आत्मा कहीं खो जाती है।

इन्हें न पार्टी से कोई लगाव होता है और न पार्टी के सिद्धांतों से। उनके लिए पार्टी एक मंच मात्र होती है, जहां वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं। यह दृश्य तब और रोचक हो जाता है जब पुरानी पार्टी के ये ‘महानुभाव’ नई पार्टी में अपनी पुरानी आदतों के साथ आकर पहले से संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं को और हताश कर देते हैं। पार्टी के पुराने कार्यकर्ता अब या तो मजबूरी में इन्हें सलाम करते हैं या फिर निराश होकर पार्टी से किनारा कर लेते हैं। और पार्टी, जो कभी जनता के भरोसे पर खड़ी थी, धीरे-धीरे अपनी पहचान खो देती है।

अंत में, यही गुट पार्टी को उस स्थिति में ले आता है, जहाँ वह जड़ता और अंतर्विरोधों के दलदल में फंस जाती है। जनता भी तब तक इस सच्चाई को पहचान चुकी होती है, और पार्टी का ढलता हुआ सूरज किसी और ‘सूरज’ को सलाम कर रहा होता है।