सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’
भारत में बाल श्रम को लेकर जितनी संवेदनशील बातें होती हैं, ज़मीनी सच्चाई उससे उतनी ही क्रूर है। आँकड़े कहते हैं कि देश में आज भी लगभग 10.1 मिलियन बच्चे (5–14 वर्ष) ऐसे हैं जो श्रम कर रहे हैं। ये संख्या भारत की कुल श्रमिक आबादी का लगभग 4 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों में बाल श्रम की दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक है—ग्रामीण क्षेत्रों में 14 प्रतिशत, शहरी में 5 प्रतिशत। लड़कों और लड़कियों की संख्या भी इस श्रम बाजार में लगभग बराबर है—5.6 मिलियन लड़के और 4.5 मिलियन लड़कियां। ये बच्चे खेतों, कारखानों, चाय दुकानों, घरेलू नौकरियों और दूध बांटने के काम में लगे हैं।
अब अगर नजर डालें झारखंड पर, तो स्थिति और भी चिंताजनक नज़र आती है। आंकड़े बताते हैं कि राज्य में करीब 5 लाख से अधिक बच्चे, 18 वर्ष से कम उम्र में, विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक रूप से हानिकारक श्रम में लगे हुए हैं। कोडरमा और गिरिडीह जैसे जिलों में अकेले 22,000 से अधिक बच्चे माइका खदानों में काम कर रहे हैं। ये आँकड़े केवल संख्याएं नहीं, ये उस चुप्पी की गवाही हैं जिसमें शासन-प्रशासन ने खुद को लपेट लिया है।
किसी जिला विशेष या संस्थान विशेष का नाम ले कर उनका मान मर्दन मंशा नहीं ; फिर भी बोकारो जिला इस लापरवाही का सटीक उदाहरण है। यहाँ एक सरकारी भवन के बगल में एक भव्य रेस्तराँ है, जहाँ सरकारी मीटिंग्स, जलसे और पार्टियाँ होती हैं। उन पार्टियों में जिन बच्चों से प्लेट उठवाए जाते हैं, पानी सर्व करवाया जाता है—वे बाल श्रमिक हैं। सरकारी कार्यक्रमों की पृष्ठभूमि में बाल मजदूरी की यह भयावह तस्वीर आम हो गई है। अब ये न कोई अपराध दिखता है, न किसी के लिए शर्म का विषय। और तो और बोकारो में ढाबों से लेकर दूध पहुंचाने वालों तक, मोहल्ला स्तरीय स्कूलों में झाड़ू-पोंछा करने से लेकर घरेलू नौकरियों तक, बाल श्रमिक हर कोने में मौजूद हैं—बस प्रशासन की आंखों पर पट्टी बंधी है। ज़मीनी हकीकत यह है कि जिला स्तर पर एनजीओ और Child Labour Project Society जैसी इकाइयाँ ओह-लोह कर बैठी हैं, पर उनके पास बच्चों की गिनती के अलावा कोई अभियान नहीं — क्या विडम्बना है!
कानून क्या कहता है? बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे से काम करवाना अपराध है। लेकिन कानून को लागू करने वाले जब दोपहर की चाय बाल मजदूर से मंगवाते हैं, तो कानून का कागज़ी होना और जनता की असहायता—दोनों सामने आ जाते हैं। ऐसी स्थितियों में कानून केवल सरकारी भाषणों का एक हिस्सा बनकर रह जाता है।
आश्चर्य इस बात पर नहीं कि बाल श्रमिक मौजूद हैं—आश्चर्य इस पर है कि सभी जानते हुए भी उन्हें देखकर कोई विचलित नहीं होता। माता-पिता गरीबी में बच्चों को काम पर भेजते हैं, यह तो एक पक्ष है, लेकिन इससे भी बड़ा दोष तब होता है जब समाज उस बच्चे को एक मेहनतकश इंसान मान लेता है, न कि शोषित। बाल मजदूरी सिर्फ सामाजिक बुराई नहीं, नैतिक अपराध है। यह बचपन के अधिकारों का अपहरण है, उस समय का गला घोंटना है जो किसी बच्चे को निर्माणशील व्यक्ति बनने की दिशा देता है।
बोकारो जैसी जगहों पर यह क्रूरता इसलिए भी अधिक खलती है क्योंकि प्रशासनिक व्यवस्था वहां मौजूद है—लेकिन निष्क्रिय है। बाल श्रम विरोधी समितियाँ, जिला स्तरीय टास्क फोर्स, चाइल्ड हेल्पलाइन—all are present but absent in effect. जिले की फाइलों में आंकड़े दर्ज हैं, लेकिन ज़मीनी कार्रवाई शून्य के बराबर है।
सरकार अगर चाहे तो बहुत कुछ किया जा सकता है। ज़िला स्तर पर बाल श्रमिकों की पहचान कर उन्हें स्कूल में नामांकित करना, उनके माता-पिता को आर्थिक सहायता देना, पोषण व शिक्षा योजनाओं से जोड़ना, और कानूनों को कड़ाई से लागू करना—ये सब एक मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति से संभव है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बाल श्रम के विरुद्ध कोई ‘इंफ्लुएंसर’ नहीं है, कोई ‘ट्रेंड’ नहीं है, कोई ‘वायरल’ अपील नहीं है।
एनजीओ और समाज भी इस विषय में तब तक सक्रिय नहीं होते जब तक कैमरे की रोशनी न हो। फ़ोटो खिंच गई, अखबार में छप गई, दो ट्वीट हो गए—फिर अगली मीटिंग का इंतज़ार। यह सारा तंत्र जैसे बाल मजदूरी से समझौता कर चुका है। एक अदृश्य अनुबंध है—बच्चे मेहनत करें, बड़े आराम करें, समाज चुप रहे, और सरकार आंकड़ों में लिप्त रहे।
लेकिन यह चुप्पी ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती। जिस दिन समाज की आंख खुलेगी, उस दिन प्रशासन को जवाब देना होगा। उस दिन यह पूछा जाएगा कि बच्चों से श्रम करवाने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? रेस्तरां मालिकों, ढाबा संचालकों, घरेलू सहायकों को रखने वाले उच्चवर्गीय परिवारों पर कभी मुकदमा क्यों नहीं चला?
अंततः, यह केवल नीति या कानून की बात नहीं है—यह इंसानियत की परीक्षा है। जब कोई बच्चा स्कूल जाने की उम्र में ट्रे लेकर खड़ा होता है, तो केवल वह नहीं हारता, हम सब हारते हैं। जब तक प्रशासन बाल श्रमिक को नहीं देखता, तब तक उसे न संविधान दिखेगा, न विकास।
बाल श्रम केवल एक सामाजिक दोष नहीं, यह एक नैतिक क्राइम है जिसे देखकर चुप रहना उस अपराध के बराबर है। झारखंड की पार्टी हॉल्स में बच्चों का काम और प्रशासन की मौन समाधि के बीच “बचपन बचाओ” के नारे अब व्यंग्य का पात्र बन गए हैं। बाल श्रम की यह त्रासदी बोकारो में हो या झारखण्ड के किसी कोने में, उसे रोकना हर ज़िम्मेदार नागरिक और अधिकारी का फर्ज है। बचपन कोई विकल्प नहीं, एक अधिकार है। और यदि हम इसे नहीं समझ पाए, तो हमें न भविष्य मिलेगा, न समाज।