– पूर्णेन्दु सिन्हा पुष्पेश .
भारत में हर प्रमुख राजनीतिक दल में आंतरिक राजनीति के तीन प्रमुख गुट होते हैं: सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधि, पार्टी कार्यकर्ता, और बाहरी प्रभावशाली लोग। इस आंतरिक संरचना का संतुलन अक्सर पार्टी की सफलता या विफलता तय करता है। इन गुटों के बीच मतभेद, आपसी संघर्ष, और असंतोष उस पार्टी की कार्यक्षमता और जन समर्थन को प्रभावित करते हैं, जिससे जनता धीरे-धीरे पार्टी से विमुख हो जाती है।
पहला गुट: पदासीन जनप्रतिनिधि
पहले गुट में वे नेता शामिल होते हैं, जो विधायिका या संसद में पदासीन होते हैं। इनमें से कई नेता कुंडली मार कर बैठे होते हैं, और लम्बे समय से पार्टी में जमे हुए होते हैं। ये नेता अक्सर पार्टी के ‘पारंपरिक चेहरे’ होते हैं, जो कई चुनाव जीतने के बाद भी जमीनी हकीकत से दूर हो जाते हैं।
समस्या यह है कि ऐसे नेता जनता के साथ सीधा संवाद नहीं रखते। जनता उन्हें वोट देने को मजबूर होती है क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता। आलाकमान द्वारा बार-बार इन्हें टिकट देना भी पार्टी के हित में नहीं होता, क्योंकि यह जनता के बदलते मिजाज को नजरअंदाज करने जैसा है।
यह स्थिति जमी हुई पानी की बावड़ी जैसी होती है, जिसमें समय के साथ सड़ांध बढ़ती जाती है। इस गुट में खासकर वे नेता आते हैं, जिन्होंने न्यूनतम दो टर्म से अपनी सीट पर कब्जा जमाया हुआ है। यह न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए, बल्कि जनता के लिए भी एक गंभीर समस्या बन जाती है। जनता धीरे-धीरे पार्टी से विरक्त होने लगती है, क्योंकि वह देखती है कि उनके क्षेत्र में कोई नया और ऊर्जावान नेतृत्व उभरने का मौका नहीं मिल रहा।
वास्तविकता में यह राजनीतिक आलाकमान की बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वे समय रहते इस बदलती स्थिति को समझें और तदनुसार परिवर्तन लाएं। लेकिन विडंबना यह है कि कई बार आलाकमान भी इन जमे हुए नेताओं के दबाव में आकर उनकी पुनः नियुक्ति कर देते हैं। इसके पीछे राजनीतिक समीकरण और पुराने वफादारों को बनाए रखने की मंशा होती है, जो दीर्घकालिक रूप से पार्टी के लिए हानिकारक साबित होती है।
दूसरा गुट: समर्पित पार्टी कार्यकर्ता
दूसरे गुट में वे पार्टी कार्यकर्ता आते हैं, जो पार्टी के लिए जमीनी स्तर पर काम कर रहे होते हैं। ये कार्यकर्ता न केवल अपने राजनैतिक भविष्य की उम्मीद लगाए होते हैं, बल्कि पार्टी के लिए पूरी मेहनत और निष्ठा से काम कर रहे होते हैं।
इन कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें ‘झंडा ढोने वाला’ से ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। वरिष्ठ नेता उन्हें आगे बढ़ने का मौका नहीं देते, जिससे उनके अंदर असंतोष उत्पन्न होता है। यह असंतोष धीरे-धीरे पार्टी के आधार को कमजोर करता है, क्योंकि कार्यकर्ता ही पार्टी की जड़ होते हैं। अगर उन्हें उचित सम्मान और अवसर नहीं मिलता, तो वे धीरे-धीरे पार्टी से दूर होने लगते हैं।
ऐसे हालात में नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं को उचित मार्गदर्शन और नेतृत्व में शामिल करना आवश्यक है। जब पार्टी के कार्यकर्ता असंतुष्ट होते हैं, तो वे न केवल पार्टी के भीतर असंतोष फैलाते हैं, बल्कि चुनावों में पार्टी के पक्ष में काम करने से भी कतराते हैं। यह एक दीर्घकालिक संकट को जन्म देता है, जो पार्टी की राजनीतिक आधारशिला को कमजोर करता है।
तीसरा गुट: बाहरी प्रभावशाली लोग
तीसरे गुट में वे लोग आते हैं, जो धनबल, बाहुबल, या अन्य प्रभावशाली तरीकों से पार्टी में शामिल होते हैं। ये लोग अक्सर उन पुरानी पार्टियों से असंतुष्ट होते हैं, जहां उनका वर्चस्व नहीं बन पाता। वे नयी पार्टी में शामिल होकर अपना राजनीतिक करियर बनाना चाहते हैं। हालांकि, इनके पार्टी में आने से मौजूदा कार्यकर्ता और नेता निराश होते हैं, क्योंकि ये लोग अचानक से सत्ता में हिस्सेदारी चाहते हैं।
यह स्थिति पार्टी के वफादार कार्यकर्ताओं के लिए निराशाजनक साबित होती है। उन्होंने वर्षों तक पार्टी के लिए मेहनत की होती है, लेकिन नए बाहरी लोगों के आ जाने से उनकी महत्वाकांक्षाएं धूमिल हो जाती हैं। इस तरह का असंतुलन पार्टी के भीतर संघर्ष को बढ़ावा देता है और राजनीतिक अस्थिरता को जन्म देता है।
ऐसे बाहरी लोगों का पार्टी में प्रवेश एक दोधारी तलवार की तरह होता है। एक तरफ, यह पार्टी को वित्तीय और अन्य संसाधनों का लाभ दे सकता है, लेकिन दूसरी तरफ, यह पार्टी के आंतरिक संतुलन को बिगाड़ता है। यदि इन्हें सही तरीके से नियंत्रित नहीं किया जाता, तो यह पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।
आलाकमान की जिम्मेदारी
इन तीनों गुटों के बीच संतुलन बनाना और सही समय पर आवश्यक परिवर्तन करना आलाकमान की जिम्मेदारी होती है। राजनीतिक दलों में समय-समय पर नेतृत्व परिवर्तन आवश्यक होता है। इसके उदाहरण इतिहास में देखे जा सकते हैं, जब समय पर सही निर्णय न लेने से कई पार्टियों का पतन हुआ है।
एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी का उदाहरण इसका सबसे बड़ा सबूत है। इस पार्टी ने अपने केंद्रीय नेतृत्व में समय रहते परिवर्तन नहीं किया, और आज वह पार्टी धीरे-धीरे राजनीतिक क्षितिज से गायब हो रही है। वहीं, दूसरी ओर, वे पार्टियां जिन्होंने समय पर नेतृत्व परिवर्तन किया, वे आज भी प्रासंगिक हैं और सत्ता में बने रहने में सफल रही हैं।
आलाकमान को समझना चाहिए कि जनता और कार्यकर्ताओं का मिजाज बदलता रहता है। यदि पार्टी के नेता इस बदलाव को नजरअंदाज करते हैं, तो जनता का विश्वास खोने में ज्यादा समय नहीं लगता।
सारतः, राजनीतिक दलों के भीतर तीन प्रमुख गुट होते हैं, जिनमें संतुलन और सही समय पर परिवर्तन आवश्यक होता है। सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधि, पार्टी कार्यकर्ता, और बाहरी प्रभावशाली लोग – सभी पार्टी की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन इन गुटों के बीच असंतुलन, पार्टी के लिए गंभीर संकट उत्पन्न कर सकता है।
सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों को जनता और कार्यकर्ताओं से जुड़ाव बनाए रखना चाहिए। वहीं, पार्टी कार्यकर्ताओं को उचित सम्मान और नेतृत्व में शामिल करना चाहिए। बाहरी प्रभावशाली लोगों का पार्टी में प्रवेश संतुलन के साथ होना चाहिए, ताकि मौजूदा कार्यकर्ताओं का मनोबल न गिरे।
आलाकमान की भूमिका इस संतुलन को बनाए रखने और समय रहते आवश्यक बदलाव करने में होती है। अगर आलाकमान समय पर सही निर्णय नहीं लेते, तो पार्टी का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।
वस्तुतः ऐसी राजनीतिक पार्टियों को यह समझना होगा कि समय-समय पर नेतृत्व परिवर्तन और संतुलन बनाए रखना ही उनकी दीर्घकालिक सफलता की कुंजी है। जहां यह समझदारी नहीं दिखाई देती, वहां पार्टी का पतन निश्चित होता है।