आरक्षण: सामाजिक न्याय या राजनीतिक हथियार?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश। 

भारत में आरक्षण की अवधारणा मूल रूप से सामाजिक न्याय और समानता के उद्देश्य से की गई थी। जब देश आज़ाद हुआ, तो संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। यह व्यवस्था अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए की गई थी, ताकि उन्हें समान अवसर मिल सकें और वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें। हालांकि, समय के साथ यह व्यवस्था वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बन गई, जिससे आरक्षण का मूल उद्देश्य कहीं न कहीं खो गया।

आरक्षण का मूल उद्देश्य यह था कि समाज के उन वर्गों को, जो सदियों से सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए थे, मुख्यधारा में लाया जाए। इस व्यवस्था के तहत सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और राजनीति में इन वर्गों के लिए सीटें आरक्षित की गईं, ताकि वे भी बराबरी के स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें।

समय के साथ, यह महसूस किया गया कि आरक्षण का लाभ समाज के केवल एक ही वर्ग तक सीमित रह गया है, जबकि आरक्षित वर्ग के अधिकांश लोग अब भी इससे वंचित हैं। इसे दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा प्रस्तुत की। इस अवधारणा का उद्देश्य था कि आरक्षित वर्ग में आर्थिक, सामाजिक, और शैक्षणिक रूप से संपन्न लोगों को आरक्षण की सुविधा से बाहर किया जाए, ताकि इसका लाभ वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंच सके।

लेकिन, क्रीमी लेयर की यह अवधारणा राजनीतिक विवाद का कारण बन गई। इसका मुख्य कारण यह था कि आरक्षण अब केवल सामाजिक न्याय का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक का साधन बन गया था। ऐसे में किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह निर्णय लेना मुश्किल था कि वह आरक्षण में क्रीमी लेयर को लागू करे, क्योंकि इससे उनके वोट बैंक पर असर पड़ सकता था।

आरक्षण का राजनीतिकरण सबसे पहले मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद स्पष्ट रूप से देखा गया। 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया, तो देश में एक बड़ा सामाजिक और राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया। इसके तहत OBC को 27% आरक्षण देने का प्रावधान किया गया, जिससे आरक्षण का कुल प्रतिशत 49.5% हो गया।

इसके बाद से विभिन्न जातियों और समुदायों ने आरक्षण की मांग करना शुरू कर दिया। राजनीतिक दलों ने भी इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, वैसे-वैसे आरक्षण के मुद्दे को राजनीतिक पार्टियां उठाने लगती हैं। राजस्थान में जाटों को OBC में शामिल करने का मुद्दा हो या फिर गुर्जरों का आंदोलन, ये सभी घटनाएं आरक्षण के राजनीतिकरण का उदाहरण हैं।

समय के साथ, यह बहस तेज़ हो गई कि आरक्षण को जातिगत आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि आरक्षण का लाभ केवल उन लोगों को मिले जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, चाहे वे किसी भी जाति के हों। हालांकि, इस पर कोई सर्वसम्मति नहीं बन पाई है।

आरक्षण का जातिगत आधार पर होना देश में सामाजिक असंतोष को बढ़ा रहा है। इससे समाज में वर्गभेद की खाई और गहरी हो रही है। इसके अलावा, कई मामलों में आरक्षण का लाभ केवल एक ही वर्ग को मिलता आ रहा है, जबकि बाकी लोग इससे वंचित हैं। इसलिए, यह जरूरी है कि आरक्षण की समीक्षा की जाए और इसे आर्थिक आधार पर लागू किया जाए, ताकि इसका लाभ सही मायनों में उन लोगों तक पहुंचे, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

आरक्षण का दायरा समय के साथ बढ़ता ही गया है। अनुसूचित जाति और जनजाति के बाद, OBC को भी आरक्षण का लाभ दिया गया। इसके बाद, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को भी आरक्षण में शामिल किया गया।

लेकिन, सवाल यह उठता है कि क्या आरक्षण का यह विस्तार सही दिशा में जा रहा है? क्या इससे उन लोगों को वाकई में लाभ हो रहा है, जिनके लिए यह व्यवस्था बनाई गई थी? या फिर यह केवल राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक का एक साधन बनकर रह गया है?

यह समय है कि आरक्षण के मुद्दे पर गंभीरता से विचार किया जाए। आरक्षण का मकसद केवल समाज के एक वर्ग को लाभ पहुंचाना नहीं होना चाहिए, बल्कि इसका उद्देश्य होना चाहिए कि समाज के हर वर्ग को समान अवसर मिले। इसके लिए जरूरी है कि आरक्षण के नियमों और प्रावधानों की समीक्षा की जाए।

आरक्षित वर्ग के संपन्न लोगों को आरक्षण की सुविधा से बाहर किया जाना चाहिए। इससे आरक्षण का लाभ उन लोगों तक पहुंचेगा, जो वाकई में इसकी जरूरत रखते हैं। जातिगत आरक्षण की जगह आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। इससे समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिलेंगे और सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलेगा। आरक्षण को हमेशा के लिए लागू नहीं किया जाना चाहिए। इसे एक निश्चित समयसीमा के लिए लागू किया जाना चाहिए और फिर इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि आरक्षण का लाभ सही लोगों तक पहुंचे। आरक्षण के साथ-साथ शैक्षणिक सुधारों की भी जरूरत है। सरकार को शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कदम उठाने चाहिए, ताकि समाज के सभी वर्गों के लोग शिक्षा प्राप्त कर सकें और उन्हें आरक्षण की जरूरत न पड़े।

आरक्षण का मकसद सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना था, लेकिन आज यह राजनीति का एक साधन बनकर रह गया है। यह जरूरी है कि आरक्षण की व्यवस्था को पुनः परिभाषित किया जाए और इसे समाज के हर वर्ग के लिए लाभकारी बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है कि आरक्षण के नियमों और प्रावधानों की समीक्षा की जाए और इसे जातिगत आधार से हटाकर आर्थिक आधार पर लागू किया जाए। केवल तभी आरक्षण का वास्तविक लाभ समाज के जरूरतमंद वर्गों तक पहुंच पाएगा और सामाजिक न्याय का सपना साकार हो पाएगा।