संविधान और राज्य सरकारों का नया खेल: अधिकारों का बंटवारा या सर्कस?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश। 

क्या आप जानते हैं कि भारत के संविधान के साथ अब एक नया खेल खेला जा रहा है? जी हाँ, यह वही संविधान है जिसे बनाने में महीनों की मेहनत लगी, जिसका पालन करना हर भारतीय का कर्तव्य है, और जिसे बदलने का अधिकार केवल संसद के पास है। लेकिन अब इस संविधान का नया रूप सामने आ रहा है, जिसे ‘राज्य सरकार संशोधन’ कहा जा सकता है। और इस खेल की पहली खिलाड़ी हैं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी।

अब देखिए, हुआ यूँ कि बंगाल में एक घटना घटी—वह घटना इतनी भयानक थी कि पूरे देश में आक्रोश फैल गया। एक महिला चिकित्सक के साथ ऐसा हुआ जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। आक्रोश होना भी चाहिए, आखिर यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। लेकिन यहां से कहानी में मोड़ आया। पश्चिम बंगाल की सरकार ने संविधान में संशोधन का फैसला कर लिया, परंतु संसद के पास नहीं गई। उन्होंने अपने ही राज्य की विधानसभा में प्रस्ताव पास करवा दिया कि दुष्कर्मियों को फांसी दी जाएगी और यह कानून पूरे देश में लागू होगा। वाह, क्या बात है! अब राज्य सरकारें देश के संविधान में संशोधन करेंगी और संसद को नजरअंदाज कर देंगी।

अब सोचिए, अगर ऐसा ही हर राज्य करने लगे, तो क्या होगा? राजस्थान बोलेगा कि उसके यहां नया कानून है, उत्तर प्रदेश कहेगा कि वह अपनी अदालतें चलाएगा, और बिहार तो कहेगा कि संविधान को अब हर जिले में अलग-अलग लागू किया जाएगा। हम अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं, परंतु अगर राज्य सरकारें इस तरह संसद को दरकिनार करेंगी, तो फिर क्या बचा?

आइए, इस व्यंग्यात्मक खेल को थोड़ा और मजेदार बनाते हैं। कल्पना कीजिए कि कल को दिल्ली की सरकार तय करती है कि अब कोई भी सरकारी कर्मचारी काम नहीं करेगा जब तक कि जनता उन्हें चाय और बिस्किट न खिलाए। या फिर महाराष्ट्र यह घोषणा कर दे कि अब हर नागरिक को दिन में तीन बार नमस्कार करना अनिवार्य होगा। और कर्नाटक तो यह कहेगा कि यहां पर सिर्फ कन्नड़ में बात करना ही कानूनन सही होगा, वरना जेल!

क्या यह सब कल्पना है? नहीं, यह हमारे लोकतंत्र का नया चेहरा है, जिसमें राज्य सरकारें अपने हिसाब से कानून बना रही हैं और संसद सिर्फ बैठकर तमाशा देख रही है।

अब आते हैं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ। उन्होंने यह नया संविधान संशोधन प्रस्ताव अपनी विधानसभा से पारित करवा लिया और राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज दिया। वाह, यह तो बिल्कुल ऐसे है जैसे घर में बैठकर कोई बच्चा खुद ही अपना रिपोर्ट कार्ड बना ले और फिर अपने अभिभावक को कहे, “मुझे फर्स्ट आना ही है, देख लो!”

अगर संविधान में यह बदलाव पारित हो गया, तो इसका मतलब यह होगा कि अब हर राज्य अपनी मर्जी से कानून बना सकेगा। बंगाल ने यह शुरुआत कर दी है, अब बाकी राज्य भी लाइन में लग सकते हैं। क्या यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का मजाक नहीं है?

आइए, इस नए खेल के कुछ और पहलुओं पर हंसी-मजाक करें। अगर राज्य सरकारें इसी तरह संसद के अधिकारों पर अतिक्रमण करती रहेंगी, तो फिर संसद का क्या काम रह जाएगा? वह तो एक शोरगुल भरी पार्टी बनकर रह जाएगी, जहाँ नेता सिर्फ चिल्लाते रहेंगे कि “ये मेरा अधिकार है!” और दूसरी तरफ राज्य सरकारें कहेंगी, “ये मेरा राज्य है, मैं जो चाहूं, करूंगी।”

यह मान भी लिया जाए कि कुछ मामलों में राज्य सरकारें अधिकार ले सकती हैं, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि वे संविधान में संशोधन करने लगे। इसका मतलब यह भी नहीं कि वे संसद की शक्तियों को ही चुनौती दें। यह तो वैसा ही है जैसे किसी स्टूडेंट ने क्लासरूम में टीचर से कह दिया कि “अब मैं पढ़ाऊंगा, आप आराम कीजिए!”

अब जरा सोचिए, यह सब राजनीतिक चालें हैं। राज्य सरकारें, विशेषकर बंगाल की सरकार, इस मुद्दे को लेकर राजनीति कर रही हैं। वे इस मामले को लेकर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने की कोशिश कर रही हैं। ममता बनर्जी ने यह कदम उठाकर अपने राज्य में लोकप्रियता तो बटोरी, लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि इससे देश के संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद पर क्या असर पड़ेगा।

आज ममता बनर्जी ने यह किया है, कल को किसी और राज्य के मुख्यमंत्री यह कर सकते हैं। फिर संविधान का क्या होगा? क्या वह एक किताब बनकर रह जाएगा जिसे हर राज्य अपनी मर्जी से तोड़े-मरोड़ेगा? यह सवाल अब सिर्फ़ बंगाल या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, यह एक राष्ट्रव्यापी समस्या बन सकती है। अगर हर राज्य अपनी विधानसभा के माध्यम से संविधान में संशोधन करने लगेगा, तो देश में अराजकता फैल जाएगी। संसद का अधिकार समाप्त हो जाएगा और राज्यों की मनमानी बढ़ जाएगी।

आइए, एक काल्पनिक स्थिति की बात करें। मान लीजिए कि एक राज्य ने यह निर्णय लिया कि अब उनका राज्य रात 10 बजे के बाद बंद रहेगा। दूसरे राज्य ने घोषणा कर दी कि सप्ताह में दो दिन काम नहीं होगा। यह सारी स्थितियाँ काल्पनिक लग सकती हैं, परंतु अगर राज्य सरकारें अपने अधिकारों का अतिक्रमण इसी तरह करती रहेंगी, तो ऐसी ही स्थितियाँ पैदा हो सकती हैं। राज्यों की मनमानी अराजकता की ओर ले जाएगी।

अभी तो यह खेल बंगाल में शुरू हुआ है, परंतु अगर इसे रोका नहीं गया तो फिर भविष्य में अन्य राज्य भी इसी राह पर चल पड़ेंगे। और फिर संसद केवल नाम की रह जाएगी। इसका परिणाम क्या होगा? भारतीय लोकतंत्र की नींव कमजोर हो जाएगी और एक दिन ऐसा आएगा जब हर राज्य अपने-अपने कानूनों से देश को चला रहा होगा। तब संविधान का कोई मतलब ही नहीं बचेगा।

संविधान को राजनीतिक हथियार बनाना बेहद खतरनाक है। राजनीतिक दलों को अपनी मर्यादा का पालन करना चाहिए और संविधान को राजनीति से अलग रखना चाहिए। संविधान हमारे देश की आत्मा है, इसे राजनीति के हिसाब से तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल करना उसकी गरिमा का अपमान है।

अगर राजनीतिक दल इस प्रकार संविधान का दुरुपयोग करते रहे, तो इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था कमजोर होगी और भविष्य में इसके परिणाम बेहद घातक हो सकते हैं। राज्यों और संसद के बीच की खाई बढ़ जाएगी और इसका सीधा असर देश के सामान्य नागरिकों पर पड़ेगा।

आइए, एक और मजेदार कल्पना करें। अगर इस सर्कस को बंद नहीं किया गया, तो क्या होगा? शायद कल को हमें सुनने को मिले कि “अब हर राज्य अपने कानून बना सकता है, और संसद सिर्फ देखेगी।” संविधान की किताबें म्यूजियम में रख दी जाएंगी और हर राज्य की सरकार अपने नए नियम लागू करेगी—चाय-बिस्किट, नमस्कार और कन्नड़ भाषा के कानून के साथ।

लेकिन मजाक से हटकर, यह देश के लिए एक गंभीर खतरा है। अगर हम अपने संविधान की सुरक्षा नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए तोड़ते-मरोड़ते रहेंगे, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो जाएंगी। इससे देश में अराजकता और असंतोष फैलेगा, और हर राज्य अपने हिसाब से चलने लगेगा।

इसलिए, अब समय है कि हम इस सर्कस को बंद करें। हमें संविधान की मर्यादा का पालन करना चाहिए और राज्य व संसद के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है, और राज्यों को इसे मानना चाहिए। अगर इस प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो भारतीय लोकतंत्र को भारी नुकसान हो सकता है।

अंत में, अगर यह सर्कस चलता रहा, तो संविधान और लोकतंत्र दोनों का अंत हो जाएगा, और हमें केवल यह सोचकर हंसना पड़ेगा कि कभी हम भी सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा थे।