माझी जो नाव डुबोए उसे कौन पार लगाए

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश। 

जम्मू-कश्मीर में चुनाव की घोषणा के साथ राहुल गांधी ने एक और नई गारंटी दी है – “इंडी गठबंधन की अगली सरकार जब आएगी, तो जम्मू-कश्मीर को पुनः राज्य का दर्जा दिया जाएगा।” राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा, “मेरे चलते मोदी की पूरी कॉन्फिडेंस गायब हो गई है…और आजकल दिल्ली की सरकार विपक्ष चला रहा है, हम जो चाहते हैं, वो करवा लेते हैं।” इस तरह के बयानों ने न केवल उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता को उजागर किया है, बल्कि उनकी पार्टी की मौजूदा स्थिति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।

“माझी जो नाव डुबोए, उसे कौन पार लगाए?” यह कहावत कांग्रेस की मौजूदा स्थिति पर सटीक बैठती है। पार्टी अब एक डूबती हुई नाव के समान हो गई है, जिसे पार लगाने वाले खुद पार्टी को डुबोने पर तुले हुए हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पार्टी के आंतरिक मतभेद इसकी सबसे बड़ी वजह बन रहे हैं।

हाल ही में, पार्टी के पूर्व वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस की वर्तमान स्थिति पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि आज की कांग्रेस में वही रह सकता है जिसकी “रीढ़ की हड्डी” नहीं है। यह बयान पार्टी के भीतर की गहरी समस्याओं को उजागर करता है, जहां फैसले उन्हीं लोगों द्वारा लिए जाते हैं, जिनके पास कोई अधिकार नहीं होता।

कांग्रेस की मौजूदा संरचना में नेतृत्व की कमी साफ दिखाई दे रही है। सोनिया गांधी, जो कभी पार्टी की मजबूत स्तंभ थीं, अब निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं, और राहुल गांधी ने पार्टी के फैसलों पर अपनी पकड़ जमा रखी है। किसी भी प्रकार की असहमति को “मोदी का एजेंट” करार देकर खारिज कर दिया जाता है, जिससे पार्टी के भीतर संवाद की कमी और गहरी हो जाती है।

राज्य स्तर पर कांग्रेस की स्थिति और भी चिंताजनक है। राजस्थान इसका स्पष्ट उदाहरण है, जहां सचिन पायलट जैसे युवा नेता, जो पार्टी में नई उम्मीद जगाने वाले थे, हाशिये पर हैं। सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया, और अब उन्हें अपनी आवाज सुनाने के लिए भूख हड़ताल जैसे कदम उठाने पड़ रहे हैं। वहीं, अशोक गहलोत, जो खुलकर पार्टी के हाई कमान के खिलाफ बगावत कर चुके हैं, अब भी अपनी कुर्सी पर जमे हुए हैं। यह गुटबाजी केवल राजस्थान तक सीमित नहीं है, बल्कि छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी कांग्रेस के भीतर संघर्ष की स्थिति बनी हुई है।

छत्तीसगढ़ में टीएस सिंह देव का मामला इस संघर्ष का प्रमुख उदाहरण है। उन्हें मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद थी, लेकिन उन्हें भी पार्टी की आंतरिक राजनीति का शिकार होना पड़ा। कर्नाटक में डीके शिवकुमार ने एक दलित मुख्यमंत्री की मांग उठाकर पार्टी के भीतर नए विवाद खड़े कर दिए हैं, ताकि सिद्धरमैया को दोबारा मौका न मिले।

कांग्रेस के भीतर फैसलों की प्रक्रिया ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच गहरी खाई पैदा कर दी है। कई वरिष्ठ नेता, जिन्होंने दशकों तक पार्टी को अपनी सेवाएं दीं, अब पार्टी छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। ऐसे में पार्टी छोड़ने वालों को ‘गद्दार’ कहकर खारिज कर दिया जाता है, जैसे कि गुलाम नबी आजाद, जो कभी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में गिने जाते थे, अब पार्टी के आलोचक बन गए हैं।

राहुल गांधी की कार्यशैली में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि जो उनकी बातों का पालन नहीं करते, उन्हें दुश्मन मान लिया जाता है। पहले यह कहा जाता था कि राहुल गांधी अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की नीति पर चलते हैं, जिसमें “जो मेरे साथ नहीं है, वह मेरे खिलाफ है।” लेकिन अब यह नीति और भी संकीर्ण हो गई है।

कांग्रेस के अंदर अब दो तरह के लोग बचे हैं – एक, जो राहुल गांधी के आदेशों का पालन करते हैं, और दूसरे, जो चुपचाप पार्टी में पड़े हुए हैं, बिना किसी निर्णय लेने की हिम्मत के। इस विभाजन ने पार्टी को कमजोर कर दिया है, और अगर यही हाल रहा, तो 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के भीतर से कई नई कांग्रेस पार्टियां उभर सकती हैं।

संवाद लोकतंत्र की आत्मा होता है, और कांग्रेस में इस संवाद की कमी ने पार्टी को एक ऐसी दिशा में धकेल दिया है, जहां से वापसी मुश्किल हो गई है। क्या ही अच्छा होता कि अगरचे कांग्रेस कुछ कार्यकारी पद सृजित कर उन कार्यकारी पदों पर अनुभवी और बुद्धिमानों को नियुक्त कर सीरियसली काम शुरू करती। किन्तु इसकी संभावना शुन के बराबर दिख पड़ती है।