हिन्दुत्व की पुनर्व्याख्या होनी चाहिए

  • PURNENDU PUSHPESH, Chief Editor

हिन्दुत्व, एक अवधारणा जो भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को समाहित करती है, आज की राजनीति और सामाजिक संरचना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इस शब्द का मूल अर्थ हिंदू धर्म के अनुयायियों की जीवन शैली और संस्कृति को दर्शाता है, लेकिन समय के साथ, इसके अर्थ और संदर्भ में बदलाव आया है। आज, यह एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है, जहां इसकी पुनर्व्याख्या की आवश्यकता है।

हिन्दुत्व की परिभाषा का इतिहास स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, और सरदार पटेल जैसे महान नेताओं द्वारा स्थापित विचारों पर आधारित है। ये नेता हिन्दुत्व को एक व्यापक, समावेशी और सहिष्णु जीवन शैली के रूप में देखते थे। वे इसे धर्म की सीमाओं से परे, एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान के रूप में मान्यता देते थे, जो विविधता और सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित करती थी।

वर्तमान में, हिन्दुत्व का राजनीतिकरण हो गया है। यह केवल धार्मिक विचारधारा नहीं रह गई है, बल्कि इसे मात्र एक राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग किया जा रहा है। कुछ राजनितिक पक्ष हिन्दुत्व के पक्ष में हैं तो कुछ इसके पूर्णतः विपक्ष में। नई पीढ़ी जो गलत इतिहास पढ़ कर बड़ी हुई है, वह भ्रमित हो रही है। परिणामस्वरूप उन्हें ‘हिन्दुत्व’ मात्र एक राजनितिक तमाशा प्रतीत हो रहा है। अब के अधिकांश हिन्दुओं को अपने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। यही नहीं, वे इसके दूरगामी परिणामों तक से भी अनभिज्ञ हैं। अनेकानेक भिन्न-भिन्न संगठनों, जातियों, क्षेत्रों या विभिन्न सीमाओं में बाँट कर इसने स्वयं को और जटिल बना दिया है। हिन्दुत्व की नई बनी इस संकीर्ण परिभाषा ने उसे एक ऐसी ‘अकर्मण्यता’ रूप में बदल दिया है, जो उसकी मूल भावना के पूर्णतः विपरीत है।

आज के समय में, हिन्दुत्व की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसे केवल धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि इसे एक ऐसे विचारधारा के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जो मानवता, समावेशिता, और सहिष्णुता को बढ़ावा दे। हिन्दुत्व को सभी धर्मों और संस्कृतियों के प्रति सम्मान और समर्पण का प्रतीक तो बने रहना चाहिए; साथ ही साथ अपने मौलिक अस्तित्व को बनाये रखने का भी भान होना चाहिए। हिन्दुत्व की पुनर्व्याख्या में समावेशिता और सहिष्णुता के सिद्धांतों को प्रमुखता तो दी जानी चाहिए; साथ ही साथ वर्तमान पीढ़ी में हिंदुत्वबोध भी होना परमावश्यक है। इसे सभी धर्मों और संस्कृतियों के लोगों के लिए खुला और स्वागत योग्य तो बने  रहना चाहिए; साथ ही साथ एक विचारधारा एक राष्ट्र के अपने अतिप्राचीन की समग्रता और समावेशन की यथार्थता को पुनर्स्थापित करना होगा।

हिन्दुत्व का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देना है। इसे आत्म-साक्षात्कार, परोपकार, और समाज सेवा के मार्ग पर चलना चाहिए। हिन्दुत्व की सही समझ और उसकी पुनर्व्याख्या के लिए वर्तमान पीढ़ी में शिक्षा और जागरूकता महत्वपूर्ण हैं। इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए शिक्षा प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिए और इसके सही मायने और उद्देश्य को स्पष्ट किया जाना चाहिए। हिन्दुत्व को पुनः परिभाषित करते समय, आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। इसे आधुनिक समय की आवश्यकताओं और चुनौतियों के साथ सामंजस्य बिठाना चाहिए, जबकि इसकी जड़ें अपनी सांस्कृतिक और धारोहरिक परंपराओं में मजबूती से बनी रहें।

अतः हिन्दुत्व की पुनर्व्याख्या न केवल इसकी मूल भावना को पुनः स्थापित करने में मदद करेगी, बल्कि समाज में अपने ही मध्य विभाजन और असहिष्णुता को भी कम करेगी। यह समय की मांग है कि हिन्दुत्व को एक व्यापक, समावेशी और सहिष्णु विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया जाए, जो भारत की विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करे। हिन्दुत्व की पुनर्व्याख्या से हम भारत में एक ऐसे समाज की ओर बढ़ सकते हैं, जहां सभी धर्मों, जातियों, और संस्कृतियों के लोग शांतिपूर्ण और सह-अस्तित्वपूर्ण जीवन जी सकें।