सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
भारत में अनुसूचित जनजातियों की पहचान और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान के तहत कई प्रावधान किए गए हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण कानून है पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996, जिसे पेसा के नाम से जाना जाता है। इस कानून का उद्देश्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्वशासन को मजबूत करना और उनके पारंपरिक अधिकारों को संरक्षित करना है। पेसा अधिनियम के तहत गांवों में ग्राम सभाओं को स्वायत्तता दी जाती है, जिससे वे अपने संसाधनों और भूमि के बारे में खुद निर्णय ले सकें। हालांकि, झारखंड में इस अधिनियम का क्रियान्वयन अभी भी अधूरा है, जिससे राज्य की आदिवासी जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा है।
पेसा कानून 1996 में संसद द्वारा पारित किया गया था, जिसका उद्देश्य आदिवासी समुदायों को उनके परंपरागत अधिकार देने के साथ-साथ उन्हें स्वशासन के अधिकार से लैस करना था। इस कानून के तहत, पंचायती राज व्यवस्था को आदिवासी इलाकों में इस तरह से लागू किया गया ताकि ग्राम सभाओं को भूमि, जल, और वन संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार मिले। इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार सुनिश्चित करना और उनकी परंपरागत प्रणाली का संरक्षण करना था।
भारत में पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र, जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, और ओडिशा, में पेसा का विशेष महत्व है। इन क्षेत्रों में आदिवासी समाज का पारंपरिक और सांस्कृतिक ढांचा बहुत मजबूत है, और उनकी जीविका का आधार मुख्य रूप से जंगल, जमीन और जल पर निर्भर करता है। इस कानून का उद्देश्य इन प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन को ग्राम सभाओं के नियंत्रण में लाना था।
झारखंड में, जहां 24 जिलों में से 13 जिले अनुसूचित क्षेत्रों में आते हैं, पेसा कानून का पूर्ण रूप से क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। राज्य के अधिकांश आदिवासी क्षेत्र आज भी इस कानून के तहत मिलने वाले अधिकारों से वंचित हैं। हेमंत सोरेन की सरकार के सामने यह एक बड़ा राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बनकर उभरा है, खासकर तब जब राज्य में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। आदिवासी समुदाय के नेता और बुद्धिजीवी संगठनों ने राज्य सरकार पर लगातार दबाव बनाया है कि वह पेसा अधिनियम के तहत नियमावली को लागू करे।
हेमंत सोरेन सरकार पर आदिवासी बुद्धिजीवी मंच और अन्य संगठनों द्वारा यह आरोप लगाया गया है कि वे पेसा कानून को लागू करने में ढिलाई बरत रही हैं। हाल ही में, झारखंड हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह दो महीने के भीतर पेसा कानून की नियमावली अधिसूचित करे। हालांकि, अब तक राज्य सरकार ने इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
सोरेन सरकार का दृष्टिकोण इस मुद्दे पर संशयपूर्ण रहा है। सरकार का दावा है कि नियमावली तैयार हो चुकी है, और इस पर अंतिम निर्णय जल्द ही लिया जाएगा। लेकिन आदिवासी बुद्धिजीवी मंच जैसे संगठन सरकार की नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि झारखंड सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नहीं है और चुनावों से पहले इसे मात्र एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
झारखंड में विपक्षी पार्टी भाजपा ने पेसा कानून के मुद्दे को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया है। भाजपा का मानना है कि हेमंत सोरेन सरकार आदिवासी जनता के हितों की अनदेखी कर रही है और पेसा कानून को लागू करने में असफल रही है। भाजपा के नेताओं का कहना है कि राज्य सरकार आदिवासियों के अधिकारों का हनन कर रही है और पेसा कानून के अंतर्गत मिलने वाले अधिकारों से उन्हें वंचित कर रही है। भाजपा ने अपने ‘परिवर्तन यात्रा’ अभियान में भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है और राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक समर्थन हासिल करने की कोशिश की है।
भाजपा का आरोप है कि झारखंड सरकार ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने के बजाय फर्जी ग्राम सभाओं का गठन कर रही है, जिससे आदिवासी समुदायों के हक का हनन हो रहा है। इसके अलावा, भाजपा यह भी दावा कर रही है कि अगर वह सत्ता में आई, तो पेसा कानून को पूरी तरह से लागू करेगी और आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करेगी।
झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, पेसा कानून का मुद्दा अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है। आदिवासी समुदाय, जो राज्य की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है, इस कानून के क्रियान्वयन की मांग कर रहा है। “पहले पेसा, फिर वोट” जैसे नारों से स्पष्ट है कि आदिवासी मतदाता इस मुद्दे को लेकर काफी सजग हैं और वे चाहते हैं कि राज्य सरकार उनके अधिकारों की रक्षा करे।
अगर हेमंत सोरेन सरकार चुनावों से पहले पेसा कानून को लागू करने में सफल हो जाती है, तो यह आदिवासी मतदाताओं के लिए एक सकारात्मक संकेत हो सकता है। इससे न केवल सोरेन सरकार के पक्ष में जन समर्थन बढ़ सकता है, बल्कि भाजपा के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन सकती है। हालांकि, अगर यह मुद्दा चुनावों से पहले हल नहीं होता है, तो भाजपा इस मुद्दे का फायदा उठाने की पूरी कोशिश करेगी।
पेसा कानून का क्रियान्वयन आसान नहीं है। इसमें कई कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियां हैं, जो राज्य सरकार के लिए एक बड़ी बाधा बन सकती हैं। उदाहरण के लिए, ग्राम सभाओं के गठन और उन्हें सशक्त बनाने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देशों की आवश्यकता है। इसके अलावा, वन अधिकार अधिनियम और अन्य संबंधित कानूनों के साथ पेसा का समन्वय करना भी एक जटिल प्रक्रिया है।
झारखंड में, जहां आदिवासी क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के मुद्दे पहले से ही जटिल हैं, पेसा कानून का क्रियान्वयन और भी कठिन हो जाता है। राज्य में बड़े पैमाने पर खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के चलते आदिवासी समुदायों को विस्थापन का सामना करना पड़ता है। इन परिस्थितियों में, पेसा कानून के तहत ग्राम सभाओं को स्वायत्तता देने से राज्य सरकार और उद्योगों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
पेसा कानून झारखंड की आदिवासी जनता के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उनके पारंपरिक अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें स्वशासन का अधिकार देता है। हालांकि, राज्य में इसका क्रियान्वयन अब तक अधूरा है, जिससे आदिवासी जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा है। हेमंत सोरेन सरकार पर दबाव है कि वह इस मुद्दे को चुनावों से पहले हल करे, जबकि भाजपा इस मुद्दे को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
आगामी विधानसभा चुनावों में पेसा कानून एक प्रमुख मुद्दा बनने जा रहा है, और यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्य की जनता किसके पक्ष में अपना समर्थन देती है। अगर सोरेन सरकार समय रहते इस कानून को लागू कर पाती है, तो यह उसके लिए एक बड़ा राजनीतिक लाभ हो सकता है। वहीं, अगर भाजपा इस मुद्दे को भुनाने में सफल होती है, तो यह उसकी चुनावी रणनीति के लिए एक महत्वपूर्ण जीत हो सकती है।