नर भटकत फिरे जगत में…….- ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

मनुष्य काम, क्रोध, मद, मोह, ममता आदि के वश में होकर इस अपार संसार सागर में भटकते फिरता है जिससे वह कहीं विश्राम नहीं पाता। बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिलता है पर वह निर्मल शरीर को नीच कर्मों में लगा कर मैला कर देता है, ईश्वर से विमुख हो जाता है फिर वह सुख चैन कैसे पा सकता है ? इसलिए हे सज्जनों! प्रभु के चरण में प्रेम करो, प्रभु का भजन करो तभी शान्ति मिलेगी। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:–—

नर भटकत फिरे जगत में,
पावै नहीं कहीं विश्राम ।
रास भोग में उमर बीत गइ,
काम क्रोध ममता से प्रीत भइ,
मिले न सुख आराम ।
पावै नहीं कहीं विश्राम ।
नर भटकत फिरे………..
हरि का भजन न मन को भाया,
नाहीं प्रेम चरन रघुराया,
भावैं न कृष्ण श्रीराम ।
पावै नहीं कहीं विश्राम ।
नर भटकत फिरे………..
बड़े भाग्य मानुष तन पाया,
मैली कर दी निर्मल काया,
लिया न हरि का नाम ।
पावै नहीं कहीं विश्राम ।
नर भटकत फिरे………..
‘ब्रह्मेश्वर’ तू खूब कमाया,
ऊँचे ऊँचे महल बनाया,
अंत न आवै काम ।
पावै नहीं कहीं विश्राम ।
नर भटकत फिरे………..

 

रचनाकार

  ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र