सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
चलिए, सीधी बात करते हैं — हम सबने स्कूल और कॉलेज में खूब पढ़ाई की है। गणित में पसीना बहाया, इतिहास में राजा-रानी रट डाले, भौतिकी में दिमाग के तार उलझा लिए। लेकिन एक सवाल आज भी खड़ा है — “क्या हमने ज़िंदगी जीना सीखा?” मतलब, अच्छे मार्क्स लाकर क्या सच में ज़िंदगी की क्लास पास कर ली? लगता तो नहीं।
क्योंकि जब नौकरी लगती है और बॉस आंखे तरेरता है, तब समझ आता है कि “संयम” वाला चैप्टर स्कूल में नहीं था। जब दिल टूटता है और दोस्त ‘seen’ पर छोड़कर चले जाते हैं, तब दिखता है कि “मनोबल” की किताब तो थी ही नहीं। और जब EMI का मैसेज आता है, तब लगता है कि “पैसों की समझदारी” का कोई पीरियड नहीं था।
असल में, हमारे स्कूल-कॉलेज ने हमें हर वो चीज़ सिखाई जो किताबों में थी — लेकिन ज़िंदगी की जो असली पाठशाला है, वो हमसे छूट गई। हमें यह तो रटवा दिया गया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, पर ये कोई नहीं बताया कि जब दुनिया आपके चारों ओर घूम रही हो (मतलब सब कुछ उलझ रहा हो), तो दिमाग कैसे शांत रखें।
अब ज़रा सोचिए — अगर स्कूल में ऐसा पीरियड होता, जिसका नाम होता “ज़िंदगी जीने की क्लास”, तो क्या नज़ारा होता?
मिस शर्मा कहतीं, “आज की क्लास का टॉपिक है — ‘ब्रेकअप के बाद मुस्कुराना कैसे सीखें’। बच्चो, ध्यान दो, इमोशनल इंटेलिजेंस बहुत जरूरी है।”
फिर सर गुप्ता आते और कहते, “आज सीखेंगे ‘ना कहना कैसे सीखें’। जब दोस्त बोले, चल पार्टी करते हैं, और आपके पास पैसे न हों, तो ना बोलने की कला कैसे अपनाएं!”
और हाँ, साल के अंत में एक फाइनल प्रोजेक्ट होता — ‘मम्मी-पापा को अपनी बात मनवाना बिना बहस किए’। जो पास हो जाता, वही असली टॉपर।
अब आप कहेंगे — “अरे भाई, ये मजाक की बातें हैं।” नहीं जनाब, ये मजाक नहीं, हकीकत है। आज के युवा जब कॉलेज से निकलते हैं, तो उनके पास डिग्री होती है लेकिन कॉन्फिडेंस नहीं। रिज्यूमे में लंबी लिस्ट होती है, पर ज़िंदगी के छोटे-छोटे फैसले लेने की हिम्मत नहीं। कभी असफलता आती है तो बिखर जाते हैं, कभी रिश्ते टूटते हैं तो टूट जाते हैं।
इसका मतलब ये नहीं कि हमारी पढ़ाई बेकार है। नहीं। मैथ्स, साइंस, इंग्लिश सब ज़रूरी है — पर उतना ही ज़रूरी है गिरने के बाद उठना सीखना, लोगों की बातें सुनकर भी अपनी राह पर चलना, और खुद से प्यार करना।
अब हल क्या है? आसान है। स्कूलों और कॉलेजों में “लाइफ स्किल्स” की क्लास होनी चाहिए। बच्चों को सिखाओ — कैसे असफलता को हज़म करें, पैसे कैसे संभालें, गुस्से को कैसे काबू करें, और रिश्तों को कैसे निभाएं।
साथ ही, घरों में भी ये क्लास लगनी चाहिए। माँ-बाप बच्चों को सिर्फ अंक और करियर की बात न बताएं — ये भी समझाएं कि सबकुछ हमेशा परफेक्ट नहीं होता। गलतियाँ ज़िंदगी का हिस्सा हैं और उनसे डरने की नहीं, सीखने की ज़रूरत है।
आख़िर में बात फिर वही है — थोड़ा “ज़िंदगी जीने की क्लास” भी ज़रूरी है। क्योंकि अगर ये क्लास छूट गई, तो फिर डिग्री भले ही फ्रेम में टंगी रहे, दिल और दिमाग दोनों ज़िंदगी की बोर्ड एग्ज़ाम में फेल हो जाएंगे।
और हाँ ! चलिए, अब जाकर ज़रा खुद की क्लास लगा लेते हैं — ज़िंदगी जीने की!