अब नहिं शहर सुहात —-
गावँ छोड़ कर शहर को आया ,
अब नहिं शहर सुहात ।
घुटन भरी यह जिन्दगी ,
कैसे पाउँ निजात ।
अपना कोई रहा नहीं ,
छूटे सकल जमात ।
दो कमरों में जिन्दगी ,
मिले प्रकाश न वात ।
ध्वनी प्रदूषण वायु प्रदूषण ,
धुम्र भरा आकाश ।
जिधर भी जाऊँ जहाँ भी जाऊँ ,
घुटन भरी ये साँस ।
रही सताती याद गावँ की ,
पर अब हो गइ देरी ।
बने न लौटत लगे न छोड़त ,
भइ गति साँप छुछुंदर केरी ।
वात = हवा
रचनाकार :
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र