बोकारो में संस्कृति की वापसी : एक उपायुक्त की साहित्यिक चेतना और कलाकारों की आशा

संपादकीय:

— पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’

बोकारो जिला लंबे समय से केवल उद्योग और उत्पादन का परिचय बनकर रह गया था। इस शहर की पहचान लौह और इस्पात से भले ही जुड़ी हो, लेकिन इसकी आत्मा कभी नाटकों की तालियों, कवि सम्मेलनों की गूंज और सांस्कृतिक आयोजनों की रंगत में रमी थी। यह दुर्भाग्य ही रहा कि विगत वर्षों में प्रशासन और प्रबंधन ने मिलकर इस सांस्कृतिक आत्मा को उपेक्षा की घुट्टी पिलाई, यहां तक कि कलाकारों की आवाज़ को सुनना भी ज़रूरी नहीं समझा गया। किंतु अब, परिस्थितियों में एक नया मोड़ आता दिख रहा है।

बोकारो जिला के नवपदस्थापित उपायुक्त अजय नाथ झा एक ऐसे प्रशासक हैं जिनकी जड़ें साहित्य और पत्रकारिता से जुड़ी हैं। यह तथ्य केवल जानकारी भर नहीं है, बल्कि एक उम्मीद की लौ है — विशेषकर उनके लिए जिनकी ज़िंदगी कला के रंगों से सजी है। डीसी झा की संवेदनशीलता और साहित्यिक पृष्ठभूमि ने बोकारो के सांस्कृतिक परिदृश्य में हलचल भर दी है। यह वह हलचल है जो वर्षों से ठहरी हुई थी — एक ऐसी धारा जिसका मार्ग अवरुद्ध था, और अब उसे खोलने का संकल्प दिखाई दे रहा है।

हाल ही में आयोजित मीडिया-संवाद में डीसी अजय नाथ झा ने जब यह कहा कि “मेरी प्राथमिकताओं में नाटक और साहित्यिक गतिविधियों को गति देना शामिल है,” तो यह वाक्य मात्र एक औपचारिक वक्तव्य नहीं रहा। यह बोकारो के कलाकारों के लिए जीवन की नयी आशा जैसा था। यह ऐसा वाक्य था जैसे तपती रेत पर अचानक कोई जलधारा बह निकली हो।

हम नहीं भूल सकते कि पिछले दो दशकों से बोकारो में संस्कृति शब्द केवल सरकारी फाइलों की शोभा बन कर रह गया था। जिन कलाकारों ने शहर को मंच, शब्द और सुरों की सौगात दी थी, वे या तो अवसाद में चले गए या पलायन कर गए। कुछ कलाकारों ने लड़ने की कोशिश की, प्रशासन और प्रबंधन से सहयोग मांगा — लेकिन उनके आवेदन और प्रस्ताव कूड़ेदान में फेंक दिए गए।

कटु सत्य यही है कि बोकारो में कला और साहित्य को प्रबंधन की ‘उत्पादकता’ की कसौटी पर ही तौला गया, और इस कसौटी पर ‘बिना लाभ’ वाली संस्कृति को गैरज़रूरी मानकर नकार दिया गया। यह स्थिति एक सभ्य समाज के लिए शर्मनाक तो थी ही, साथ ही प्रशासन की संकुचित दृष्टि का प्रमाण भी।

ऐसे में डीसी झा का प्रस्ताव, बोकारो के कलाकारों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं। यह विचार कि प्रशासन अब नाट्य गतिविधियों को प्रोत्साहित करेगा, कवियों और साहित्यकारों के लिए मंच उपलब्ध कराएगा — यह सब सुनते ही कलाकारों में एक नई ऊर्जा दौड़ गई है।
यह प्रतिक्रिया सहज भी है, क्योंकि जब कोई प्रशासनिक मुखिया स्वयं यह कहे कि ‘मेरी प्राथमिकताओं में साहित्य और रंगमंच भी हैं,’ तो यह केवल सांत्वना नहीं, बल्कि दिशा और दृष्टि का संकेत होता है।

हालांकि, उत्साह और आशा के बीच कुछ चिंताएं भी हैं। वर्षों की निष्क्रियता और उपेक्षा ने प्रशासनिक तंत्र को जंग खा जाने दिया है। सांस्कृतिक आयोजनों की बात आते ही अक्सर ‘फाइलें दब जाएंगी’, ‘अनुदान अटक जाएगा’, ‘दलाल सक्रिय हो जाएंगे’, जैसी बातें पहले भी देखी-सुनी गई हैं। डीसी झा के मातहतों में कितने अधिकारी इस सांस्कृतिक नवजागरण को गंभीरता से लेंगे? कितने लोग वास्तव में कलाकारों की आवश्यकताओं को समझेंगे और कितने इसे महज खानापूर्ति मानेंगे — यह सब देखने की बात होगी।

बोकारो के इतिहास में ऐसे अनेक प्रयास हुए, जो प्रारंभिक घोषणा के बाद फाइलों में कैद होकर रह गए। लेकिन इस बार एक फर्क है — डीसी झा की साहित्यिक पृष्ठभूमि। यह केवल शौक नहीं, बल्कि सोच है। और सोच जब शीर्ष से बदलती है, तो तंत्र भी बदलने लगता है।

आगामी महीनों में यदि जिला प्रशासन निम्नलिखित कुछ बिंदुओं पर ठोस पहल करे तो यह सांस्कृतिक आंदोलन एक स्थायी स्वरूप ग्रहण कर सकता है:

  1. स्थायी सांस्कृतिक परिषद का गठन जिसमें रंगकर्मी, लेखक, संगीतज्ञ आदि को प्रतिनिधित्व मिले।

  2. प्रत्येक ब्लॉक में संस्कृति भवन या मंच की व्यवस्था, जहां स्थानीय कलाकार प्रदर्शन कर सकें।

  3. वार्षिक सांस्कृतिक कैलेंडर का निर्माण जिसमें राज्य और जिला स्तर के आयोजन तय हों।

  4. युवाओं के लिए कला छात्रवृत्ति और प्रशिक्षण शिविर, जिससे ग्रामीण प्रतिभाओं को मंच मिले।

  5. स्थानीय विद्यालयों में नाटक, कविता, संगीत जैसी गतिविधियों को शैक्षणिक समर्थन और प्रोत्साहन।

  6. स्थानीय नाट्य संस्थाएं जो अब तक जीवित हैं या कुछ बड़ा करने की मंशा रखती हैं उन्हें सम्बल प्रदान करना; आदि।

यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मूल्य केवल मनोरंजन नहीं होता, ये समाज में संवाद, संवेदना और समरसता के बीज बोते हैं। नाटक जब किसी सामाजिक विषय पर होता है तो वह नीति-निर्धारकों को आईना भी दिखाता है और समाज को चेतना भी देता है। कविता जब लिखी जाती है, तो वह लोगों के भीतर जज़्बातों को सहलाती है, और चित्रकारी जब दीवारों पर उतरती है, तो शहर की पहचान बनती है।

बोकारो जैसे औद्योगिक नगर में संवेदनाओं के लिए स्पेस बचाना ही होगा। उत्पादन और लाभ के आँकड़ों के पीछे छिपे मानवीय पक्ष को संस्कृति ही उजागर करती है।

डीसी झा के नेतृत्व में अब इस दिशा में ठोस पहल होनी चाहिए। प्रशासन को सिर्फ पहल नहीं करनी, नियमितता, पारदर्शिता और ईमानदारी से काम करना होगा। कलाकारों को अब प्रतीक्षा नहीं चाहिए, उन्हें स्थान, सम्मान और साधन चाहिए।

यदि यह नई पहल सफल होती है तो आने वाले वर्षों में बोकारो को केवल ‘स्टील सिटी’ नहीं, बल्कि ‘संस्कृति और इस्पात’ की साझी पहचान मिलेगी — और यह पहचान स्थायी होगी।

अंत में…
उपायुक्त श्री अजय नाथ झा के प्रयासों की सराहना के साथ यह भी याद दिलाना ज़रूरी है कि आशा जगाना आसान है, उसे निभाना कठिन। बोकारो के कलाकारों की आंखों में जो चमक लौटी है, उसे बुझने न दिया जाए — यही प्रशासन की सबसे बड़ी सफलता होगी।

बोकारो तैयार है… इस बार तालियाँ केवल मंच पर नहीं, सड़कों पर भी गूंजेंगी।