चित्रगुप्त जी को अपनी नींद और अपना ऐशोआराम बड़ा प्रिय था। इससे उनके अहंकार का पौधा वटवृक्ष बन खूब फैलने लगा था। परिवारवाद ने यह सब उन्हें दिलाया था। हो भी क्यों न? ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न जो हुए थे!
ब्रह्मा जी ने विष्णु जी से पैरवी की और कहा—अपने परिवार का ही है, इसको न्याय की ऊँची कुर्सी मिलनी ही चाहिए। हमारे-तुम्हारे मिले-जुले पावर से देवाधिदेव आपत्ति नहीं कर पाएंगे। आखिर उन्होंने भी तो अपने दोनों बेटों को सेट कर दिया है। सत्ता के सुख के लिए आवश्यक है कि अपने एजेंडे को चलाने वालों को परिवारवाद के एजेंडे से सेट कर दिया जाए। आगे चलकर वह कृतज्ञ और ऋणी रहेगा, समय पर काम आएगा।
इस प्रकार चित्रगुप्त जी को न्याय करने वाली कुर्सी मिल गई। उन्हें अपनी नींद, अपना एजेंडा, अपने लाभ और अपने ऐशोआराम और भयंकर अहंकार बड़ा पसंद था। जब जितना मन करता, वैसे काम करते, जैसे चाहते, वैसे करते। ब्रह्मा और विष्णु के हाथ जो थे, उनकी पीठ पर। कोई रोकने-टोकने वाला था नहीं। निरंकुशता का उबलता रक्त उनकी नसों में दौड़ता। कभी अकेले में कहते—“अहम् ब्रह्मा अस्मि।” अब तो “अहम् विष्णु अस्मि” भी जपने लगे थे। उनकी इच्छा यह भी थी कि वे “अहम् शिव अस्मि” भी जप करने का प्रयास करें।
एक ब्रह्ममुहूर्त में, अति निम्न स्वर में चीं-चीं के कोलाहल से अनायास चित्रगुप्त जी की नींद उचट गई। यह चीं-चीं उनकी दोनों पत्नियों—नंदिनी (सूर्यदक्षिणा) और ऐरावती (शोभावती)—के खर्राटों से तो थी बहुत ही कम, फिर भी अपने पति धर्म के पालन में वे इसे स्वीकार कर इससे अभ्यस्त हो चुके थे। लेकिन इस एकदम अल्प स्वर की चीं-चीं ने उनकी नींद ही तोड़ दी।
नींद टूटते ही उन्हें भान हुआ कि न्याय करने वालों को तनिक कोलाहल सहन नहीं करना चाहिए। कोलाहल उनके अहंकार को चुनौती देता है। उन्होंने अविलम्ब चिल्लाकर अपने अन्तःपुर के द्वारपालों को बुलाना चाहा, लेकिन इस विचार को तक्षण ही त्याग दिया क्योंकि ऐसा करने से उनकी दोनों पत्नियों की नींद में बाधा पड़ती। और अगर उनकी नींद में तनिक भी बाधा पड़ी तो सारे दिन उन्हें दोनों पत्नियों का रोष, क्रोध का सामना करना पड़ेगा।
इतना शौर्य उनमें बारहों संतानों के बहुत बड़े होने के बाद अब शेष ही नहीं था। वे उठकर दबे पाँव अन्तःपुर से बाहर आए और द्वारपालों से फुसफुसाकर पूछा—“यह चीं-चीं का कोलाहल कौन मचा रहा है?”
द्वारपाल ने कहा—“हे न्याय के स्वामी, आपकी जय हो! एक नन्हीं गौरैया दशकों से प्रतिदिन आपसे अपनी प्रजाति पीड़ा कहने आती है। लेकिन आपके कर्मचारी/अधिकारी उसे डाँट कर भगा देते हैं। आज कर्मचारियों/अधिकारियों को अपने दानों की पोटली गिरवी में देकर गौरैया यहाँ तक आ गई। मुझे तो उसमें से बस कुछ ही दाने मिले। उसी ने मेरी मौन सहमति से बहुत ही निम्न स्वर में एक बार बस चीं-चीं की। फिर क्या था, हमने आपके आदेश की प्रत्याशा में सुरक्षाकर्मी को कहकर उसे कारागार में डलवा दिया है कि इससे आपकी नींद में बहुत अधिक बाधा हुई है। आप चिंता न करें, स्वामी! आपकी जय हो।”
अपनी जयजयकार सुन चित्रगुप्त जी प्रसन्नचित्त और निश्चिंत हो वे अपने अन्तःपुर लौट गए।
ठीक एक पखवाड़े बाद इसी चीं-चीं की अत्यंत ही धीमे स्वर से पुनरावृत्ति हो गई। अब चित्रगुप्त जी का क्रोध सातवें आसमान पर चला गया। वे दबे पाँव बाहर आए और क्रोध में अपने अधीनस्थ न्याय करने वाले पुत्रों-पौत्रों, दत्तक पुत्रों-पौत्रों आदि को बुला भेजा। फिर तय समय नियमानुसार, दिन के बारह बजे, एक घंटे के लिए अपने कक्ष में बैठने आए।
कई सदियों के पुराने, कई लाखों मामले उस तिथि में उनकी सुनवाई के लिए लगे थे। क्रोध में उन्होंने उन सब को अगली सदी तक के लिए, पूर्व के अनेक दिनों की भांति, टाल दिया। फिर अधीनस्थ पुत्र, पौत्र, दत्तक पुत्र, दत्तक पौत्र आदि आए और आते ही सभी ने समेकित स्वर में कहा—
“हे तात! गौरैया तो ज़मानत पर छूट कर भूख हड़ताल पर बैठी है।”
चित्रगुप्त ने कहा—“विष्णु को आदेश दो कि वे गौरैया की बात सुनें। विष्णु नहीं सुनते तो शिव को निर्देश दो।”
सबों ने समेकित स्वर में कहा—“हम लोग विष्णु जी को आदेश नहीं दे सकते। शिव के बारे में हम कुछ कैसे कहें, वे तो देवाधिदेव महादेव हैं।”
इतना सुनते ही चित्रगुप्त का अहंकार और प्रज्वलित हो उठा। उन्होंने क्रोध में कहा—“न्याय करने वाले हम सब सर्वशक्तिमान हैं। हम स्वयं एक-दूसरे को परिवार से ही खोज कर लाते हैं। हम पर कोई नियम-कानून नहीं चलता। हमारी कोई जवाबदेही है ही नहीं। हम कोई भी, कैसा भी निर्णय करें, तो कोई हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता!
“परिवारवालों पर लाख शिकायत हो, गंभीर से गंभीर आरोप सरेआम लगे—हम मामलों को दबाने में विश्वास करते हैं। हम किसी के भी कामकाज में कभी भी हस्तक्षेप करते हैं। हमने तो शिव को भी निर्णय सुना कर उसका पालन करने को कह डाला! लेकिन क्या मजाल जो हमारे कार्यकलाप में कोई हस्तक्षेप करने की सोचे भी! पहले भी हम लोगों के अपने मन से कई आदेश मैंने पारित किए हैं। किसी ने रोका क्या?”
सभी ने फिर से कहा—“वह सब तो ठीक है, पर हम सब और आप भी तो विष्णु जी के संकेत पर वह सब करते थे। अब विष्णु जी कड़े हैं। अब लगता है यह सब अब नहीं चलेगा। आपको भी पद से हटाया जा सकता है। हटने के बाद कठिनाई में भी पड़ सकते हैं।”
चित्रगुप्त जी यह सुनते ही आपे से बाहर आ गए। कहने लगे—“हम लोगों के लिए न्याय देने से बड़ा हम लोगों का अहंकार है। आज तक तो हम लोगों को हटाया नहीं गया। हम तो परिवारवाद से, परिवारवाद द्वारा लाए गए। हम लोग उनके प्रति ही कृतज्ञ रहते हैं। बाकी को हम आँखें दिखाते हैं। तुम लोगों ने इतना अंधेर मचाया, इतनी ओछी हरकतें कीं, इतना गंध फैलाया—हमारे पास तुम लोगों का सारा कच्चा चिट्ठा है। फिर भी हमने कभी तुम लोगों पर आँच आने दी? नहीं न!”
उन लोगों ने समेकित स्वर में फिर कहा—“आपने हम सब पर कोई कृपा थोड़े ही की। न्याय तो हम लोगों का व्यापार है। हम छोटे व्यापारी हैं, आप बड़े व्यापारियों में से एक हैं। सभी के पास सभी के कच्चे चिट्ठे हैं—पुलिंदों में। जब तक हमारा कच्चा चिट्ठा छिपा है, आप लोगों का भी छिपा है।”
तभी दूर से विष्णु जी का सुदर्शन चक्र ब्रह्माण्ड में घूमता सबको दिखा। सभी के साँप सूंघ गए। उन्होंने कहा – ठीक है, गौरैया की पीड़ा सुन लेनी चाहिए, चाहे न्याय किया जाए, लटकाया जाए या न किया जाए। विष्णु और सभी देवी-देवताओं को भी तो ज्ञात हो कि यह कलियुग है। दस मिनटों में गौरैया पकड़कर, घोर प्रताड़ित कर लायी गयी।
चित्रगुप्त ने पूछा – क्या पीड़ा है तुम्हारी? जल्दी बताओ। मेरे पास समय नहीं है। अन्तःपुर से बहुत सी मांगें आ रही हैं। फिर हमें पूरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण भी करने जाना है। घूमने से मन हल्का होता है। अन्तःपुर में प्रसन्नता का वातावरण बनता है।
पुत्रों-पौत्रों, दत्तक पुत्रों-दत्तक पौत्रों! देखना, सब सुख-सुविधा की व्यवस्था विष्णु कर दे।
सभी ने कहा – तनिक आदर से उन्हें अनुरोध करें तात!
चित्रगुप्त विफर उठे। बोले – जानते नहीं, हमारा अहंकार बहुत बड़ा है। हमसे तो आदेश ही होगा। हाँ गौरैया – तुम्हारे पास मात्र दो मिनट का समय है। एकदम संक्षेप में कहो।
गौरैया ने कहा – प्रभु! दशकों की पीड़ा दो मिनट में?
प्रभु शब्द सुनते ही चित्रगुप्त थोड़े ढीले पड़े। बोले – ठीक है, पाँच मिनट में कहो।
गौरैया ने जान बूझकर फिर से प्रभु सम्बोधित कर कहना प्रारम्भ किया – प्रभु! कलियुग में वैसे न्याय माँगने का मेरे समान तुच्छ जीव का अधिकार ही कहाँ? फिर हम निर्धन प्रजाति की छोटी चिड़िया भी ठहरे। अधिवक्ता रखने के लिए इतना सारा धन कहाँ से लाएँ? धन ही हमारे पास होता तो अधिवक्ता ही हमलोगों के लिए आपलोगों के आदेश बनाकर आप लोगों से हस्ताक्षर न करा लेते।
प्रभु! हम तो आपकी कृपा लेने आए हैं।
कृपा शब्द सुनते ही चित्रगुप्त एकदम नरम हो गए। बोले – बताओ अपनी पीड़ा।
गौरैया ने कहा – आपको तो स्वतः ज्ञात होना चाहिए। मेरी पीड़ा सर्वविदित है।
चित्रगुप्त ने कहा – हम अपने से वही देखते हैं, जिसमें हमें लाभ दीखता है, अपना हित सधता है। यहाँ इस कुर्सी पर बैठते ही हमलोगों को लोगों की संवेदना, पीड़ा, कष्ट, अन्याय दीखता ही नहीं। दृष्टि धुंधली होकर समाप्त होने लगती है। देखने को मात्र हम पहले अपना देखते हैं, अपनों को देखते हैं, अपनी-अपनों की सुख-सुविधा देखते हैं।
गौरैया ने कहा – आपसे मिलने के लिए हमारी पीढ़ियों के द्वारा इकठ्ठे अनाज की पोटली आधी आपके कर्मचारियों / अधिकारियों, पुत्रों-पौत्रों, दत्तक पुत्रों-पौत्रों में न्याय पाने के दबाव में गिरवी रखनी पड़ी है और आधे अधिवक्ताओं को।
चित्रगुप्त ने टोक दिया – विषय पर बात रखो। समय कम है, अब तीन मिनट बचे हैं। पीड़ा बताओ।
गौरैया काँपते हुए बोली – हमारी प्रजाति ईमानदारी, सत्य और मनुष्यता हो चली है। विलुप्त होने लगी है। आपके पर्दे की आड़ में जंगल कटते चले गए, कंक्रीट जंगल बनते चले गए। कोलाहल, प्रदूषण अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया। हमारी प्रजाति पर अत्याचार बढ़े। नदियाँ, तालाब, नाले-नहरें सूखने लगीं। हमें शांति, स्नेह, भोजन-पानी की कमी ऊपर से झेलनी पड़ती है। ऊपर से बाहर से आक्रमण के लिए आए कौवे काँव-काँव कर हमें मारते हैं। काग तो रामकथा बाँचने में कम होते गए और फर्जी काग बन कौवे बढ़ते चले जा रहे हैं। हमारे घोसलों पर उनके अधिकार होते चले गए। अब घोसले विहीन होने लगे। अनाजों, फल-सब्जियों पर कौवे कब्जा करने लगे हैं। उनका संगठन पूरे समाज को डरा रहा है। सबको कौवों की चिंता है, न मेरी और न काग की। शासन तो मेरे लिए मात्र कागजी गौरैया दिवस मनाता है। फ्लैटों के चलन में मोके भी नहीं छोड़े जा रहे कि हम अपने घोसले बना सकें। पराली भी जल जाती है और हमें घोसले बनाने के लिए तिनके भी नहीं मिलते। हम अपनी भूमि पर ही विलुप्त कर दिए जा रहे हैं।
तभी कौवों के प्रतिनिधि और उनका पक्ष लेने वाली अनेक लोमड़ियों ने शोर मचा दिया। गौरैया के साथ चित्रगुप्त भयभीत हो गए।
चित्रगुप्त ने उन्हें मुस्कुराते हुए रोक दिया और गौरैया से कहा – तुम्हारी समय सीमा समाप्त हो गयी।
तभी कौवे के प्रतिनिधि ने कहा – मुझे भी अपनी बात रखने दें।
चित्रगुप्त ने कहा – तुम्हारी बात हम गुप्त सभा में सुन चुके हैं।
चित्रगुप्त ने गौरैया को आदेश दे डाला – यह सब काम देखना विष्णु का है, मेरा नहीं। जाओ, विष्णु के पास।
यह सुनकर गौरैया फूट-फूट कर रोने लगी। तभी कैलाश से देवाधिदेव महादेव के आने का संकेत हुआ।
हड़बड़ी में डर कर जाते समय गौरैया कह गयी – हमने तो सुना था कि आजकल आप विष्णु जी के काम में भी हस्तक्षेप करते हैं। अकेले में अहम शिव अस्मि जपना चाहते हैं। प्रभु! जब आप ही मेरी नहीं सुनते तो व्यवस्था में कौन सुनेगा?
चित्रगुप्त ने क्रोध में कहा – हमने कौवे का पक्ष पहले ही सुन लिया। अब किसी का कुछ नहीं सुनना हमें।
गौरैया चली गयी। चित्रगुप्त अपनी दोनों पत्नियों और बारहों पुत्रों, अनेक पौत्रों, दत्तक पुत्रों-पौत्रों के साथ अलग-अलग लम्बे समय के लिए ब्रह्माण्ड भ्रमण में विष्णु के गरुड़ रथ पर बैठ चले गए। उनके सभी दत्तक पुत्र और दत्तक पौत्र भी अन्य देवताओं के वाहन लेकर चले गए।
इतने ही स्वप्न देखकर मेरी नींद खुल गयी – रामलाल ने मुझे बताया।
जो रामलाल से सुना, उसे आप पाठकों को सुनाया। मेरा इससे कोई लेना-देना ही क्यूँ? जो सुना, सो सुनाया। मेरा काम समाप्त। पाठक अपनी जानें, मुझे क्या!