प्रभु तो तेरे मन में विराजमान हैं । रे प्राणी तू कहाँ खोज रहा है ? प्रभु किसी मन्दिर में नहीं तेरे मन मिलेगें , बस मन निर्मल कर के अपने मन के अन्दर झाँक । इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—–
कहाँ तू खोज रहा रे प्राणी ,
तेरे मन मन्दिर में राम ।
नहीं अवध नहिं गोकुल में प्रभु ,
नहीं द्वारका धाम ।
तेरे मन मन्दिर में राम ।
कहाँ तू खोज रहा…………
मन में तेरे मैल जमी है ,
अँखियन मोह की पट्टी पड़ी है ,
दीखत नाहीं राम ।
तेरे मन मन्दिर में राम ।
कहाँ तू खोज रहा…………
एक बार तू प्रभु को भजले ,
मन निर्मल को जाए ,
धोले मन का मैल रे प्राणी ,
ले कर हरि का नाम ।
तेरे मन मन्दिर में राम ।
कहाँ तू खोज रहा…………
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र