दशरथ कौशल्या के प्रेम के वश, परब्रह्म धरी पावन नर देही । बहु बाल चरित्र करी प्रभु जी, प्रभु मातु पिता को अती सुख देहीं ।। जो सारे जग को खेल खेलावत, कौशल्या के गोद में खेलत जेही । आँगन चलत ठुमकि ठुमकत जब, मैयन्ह के चित को हरि लेहीं ।। पुरजन परिजन के प्यारे दुलारे, सबै सुख देत चलैं मन मोही । ‘ब्रह्मेश्वर’ के उर बसहु सदा, सोइ बालक रूप जो परम सनेही ।।
(सवैया – द्वितीय)
धेनू धरती सुर संत लगी, परब्रह्म धरी पावन नर देही । बन भटकत कष्ट सहत दारुण, सुख देत चलैं सुर संत सनेही ।। कपि भालु सौं प्रीत पुनीत किये, अति दुष्ट निशाचर मारहिं जेही । केवँट शबरी अरु गिद्ध जटायु, कृपालु दयालु परमगति देहीं ।। बालि बिराध कबंध सबै, प्रभु जी निजधाम पठावहिं जेही । ‘ब्रह्मेश्वर’ के उर बसहु सदा, पथगामि श्रीराम लखन वैदेही ।।