चुनरिया हो गइ मैली मोरी…….ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

चुनरिया हो गइ मैली मोरी। मैने अपनी इस रचना में चुनरी को शरीर की संज्ञा दी है। मनुष्य जब जगत में आता है तो उसका शरीर बिल्कुल शुद्ध और पवित्र रहता है पर ज्योंही मनुष्य युवावस्था को प्राप्त करता है उसके मन में विकार उत्पन्न होने लगते हैं और वह काम क्रोध मद लोभ मोह के वश में होकर इस पवित्र निर्मल शरीर रुपी चुनरी को मैला कर देता है। प्रभु को भूल जाता है और अनेक कष्ट सहता है। शरीर को तो मल मल कर धोता है पर मन को नहीं धोता और जन्म व्यर्थ गवाँ देता है और जब अन्त समय आता है तब पछतावा के सिवा कुछ नहीं रह जाता। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—–

चुनरिया हो गइ मैली मोरी ।
बाबुल दिन्हीं धवल चुनरिया ,
निर्मल कोरी कोरी ।
चुनरिया हो गइ मैली………..
जब मोरि चुनरी जग में आई ,
ममता मोह में रहो भुलाई ।
बाबुल बचन याद नहिं राखी ,
मति भइ मोरी भोरी ।
चुनरिया हो गइ मैली………..
हरि का भजन मोहे नहिं भायो ,
कोरि चुनरिया दाग लगायो ।
छूटै दाग न पचि पचि धोऊँ ,
करौं उपाय करोरी ।
चुनरिया हो गइ मैली………..
तन को धोया मन नहिं धोया ,
जनम अकारथ यूँहिं बिगोया ।
अंत समय पछिताऊँ मरि मरि ,
रोवउँ चोरी चोरी ।
चुनरिया हो गइ मैली………..

रचनाकार

 
   ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र