बाप का अरमान…-ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

बाप का अरमान —-

बाप का अरमान था बेटा बने कुछ ।
दफन कर दी खुद के अरमानों को ,
यह सोच कर, बेटा बने कुछ ।
घिसे जूते फटे कपड़े ,
पेबन्द कितने वस्त्रों पर ,
पर मस्त था यह सोच कर, बेटा बने कुछ ।
फिर घड़ी वह सुखद आई ,
बाप के अरमान को तो पंख लग आई ,
मस्त था यह सोच कर, बेटा बना कुछ ।
समय बीता जरा आई ,
बुढ़ापे की लाठी ने आँख चुराई ,
फिर भी बाप दुआ दे रहा, बेटा बनो कुछ ।

पेबन्द = चिप्पियाँ , रफू
जरा = बुढ़ापा

रचनाकार :

ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र