रोटी की कथा बहुत लम्बी, कठिन तो नहीं लेकिन उतनी छोटी व सरल भी नहीं है. हम अपनी संस्कृति, अनाज की उपलब्धता, अपने स्वास्थ्य और रूचि के अनुसार ही अनाज का चयन करते हैं. फिर उनके बीज लगाने से यह प्रक्रिया आरम्भ होती है. अनाज उगने, बढ़ने, बचाने, फूलने -फलने, पकने पर काट कर लाने, दाने छुड़ाने, उनके संग्रहण के बाद विभिन्न माध्यमों से पिसाई घर पँहुचने, पिसाई होकर हम तक पँहुचने में एक प्रक्रिया का पालन किया जाता है. ठीक उसी तरह जैसे किसी कार्य के लिए निव्हले सरकारी कार्यालय में आवेदन देना हो.आवेदन नीचे से ऊपरी कार्यालयों में जाकर फिर आवेदक को आदेश प्राप्त होता हो. हमारी व्यवस्था पूरे प्राकृतिक नियमों का पालन करती है, सुखाड़, बाढ़ और अन्य आपदाओं से निबटते हुए भाग्य अच्छा निकला तो रोटी बनेगी. पीसे अनाज को सानने,गूंधने, बेलने और आग पर सेंकने के बाद रोटी न जले और बंदरबाँट से बचे तो भाग्य में ही पूरी आती है. रोटी न हुई सरकारी योजना का लाभ हो गया! बिरले ही पूरी रोटी हाथ आती है! ऐसा न हो तो चिड़िया – चुरगुन, अनेक पक्षी, गिलहरी आदि जीवजंतु भूखे मर जायेंगे. ये सभी सरकारी तंत्र के पुर्जे, सरकारी बिचौलिए, सत्ता के लोग जैसे हैं. रोटी पा लेना और वह भी दो जून की, कोई ठट्ठा तो नहीं! मेहनत जनता अर्थात किसान की, रोटी सबकी, सबसे कम किसान की. भारत किसान प्रधान राष्ट्र जो है! लेकिन किसानी लाभदायक भी है, शर्त यह कि इसकी सिर्फ नेतागिरी की जाए! दुष्यंत कुमार ने बहुत पहले ही सच लिखा –
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल संसद में है, ज़ेरे बहस ये मुद्दहा!
हमारे यहाँ ऐसी व्यवस्था है की अनाज कोई और उगता है, आटा कोई पीसता, गूँधता कोई और, बेलता कोई और, सेंकता कोई और तथा खाता कोई और है. सच ही भारतवर्ष विविधताओं का देश है! रोटी क्या नहीं कराती. रुसी लेखक द्तावेस्की की कहानी कोई भूल भी कैसे सकता! बिहार राज्य के विशेषकर नवादा जनपद में दशकों से प्रतिवर्ष पचासों हत्याएं इसलिए होती हैं कि भूमि किसी की, फसल किसी ने लगाई, काट कर कोई और ले जाता है और रोटी पुलिस, नेता और अधिवक्ता खाते हैं.यह धंधा फल -फूल रहा है.
रोटी के लिए संघर्ष कोई नया नहीं है. असल में जो संघर्ष करते रहते हैं, वे इस संघर्ष में अपनी रोटी तक गँवा बैठते हैं. रोटी उसी के छींके में गिरती है जो विधिवत, पारम्परिक कर्मकांड से रोटी यज्ञ करता, कराता हैं. इस कर्मकांड के नियम, मंत्र, विधि सयानों को ज्ञात होती है. मुफ्त की रोटी तोड़ने के विशेषज्ञों के परिवार सभी राज्यों में पाए जाते हैं और राष्ट्रीय स्तर पर भी दीखते हैं. राजतंत्र, प्रजातंत्र के आवरण में और स्वयं प्रजातंत्र ने भी इसकी व्यवस्था कर रखी है. रोटी जनता की होती है, लेकिन उसे मुफ्त खाने को विवश हैं.
भारतीय वैदिक काल के हजारों वर्षों के बाद हमारा परिचय गेँहू से कराया गया. परम्परिक रूप से हम मक्के, चावल और श्री अन्न की रोटियाँ भी विधिवत खाते रहे. विशेष रूप से पुरुषों के रसोईघर में धकेले जाने के बाद इन अन्नों से रोटियों के बदले नाना प्रकार के व्यंजनों की भरमार हो गयी. लेकिन अभी भी अधिकतर भारतीय रसोईघरों पर महिलाओं का वर्चस्व पुरुषों को चुनौती देता रहता है. जब पुरूषों की दाल तक नहीं गलती तो रोटियों की चर्चा ही निरर्थक है. आजकल की पीढियां इससे उन्मुक्त स्विगी, जोमैटो आदि पर रोटियों तक के लिए निर्भरता की स्थिति को प्राप्त हैं.
विज्ञान, गणित, ज्यामिति से बिना प्रभावित हुए भी पृथ्वी के आकार की गोल रोटी बनाना कइयों के वश में नहीं है. इनमें आज की युवा पीढ़ी भी प्रशिक्षित होने के लिए सतत संघर्ष कर रही है. अपना भाग्य भी युवा पीढ़ी के भाग्य के साथ ही है.