सत्येंद्र बाबू बहुत परेशानी में चल रहे थे। नौकरी लगे तो तेरह साल हो गए, तभी से वे रिसीट-डिस्पैच सेक्शन में ही लगे हैं। ऐसा नहीं कि बजट वाले मालदार टेबल पर जाने का प्रयत्न नहीं किया, परंतु हर बार बेचारे लटक गए। अचानक उनकी मुलाकात शंभु जी से हुई। शंभु जी एक प्रसिद्ध समाज सेवक हैं। वे एक आयी चिट्ठी को गायब कराने के चक्कर में सत्येंद्र बाबू के यहां चक्कर काटने लगे। सत्येंद्र बाबू शंभु की कुंडली खंगालने लगे, फिर प्रभावित होकर राजी हो गए। चिट्ठी साधारण डाक से आयी भी, पर पंजी में सत्येंद्र बाबू ने चढ़ाई ही नहीं। शंभु जी को चुपके से दे दी। शंभु जी ने प्रसन्न होकर सत्येंद्र बाबू को मोटा लिफाफा देते हुए कहा कि यह दस हजार हैं, रख लीजिए। सत्येंद्र बाबू तो इतना सीख चुके थे कि ऐसे मौकों पर लोग क्या करते हैं। सो उन्होंने हाथ जोड़कर लिफाफा लेने से मना कर दिया और कहा, “बस आपकी कृपा मिल जाए, हम छोटे लोगों के लिए वही बहुत है।” अब शंभु जी उनसे प्रभावित हो गए। पखवाड़ा होते-होते सभी अवाक रह गए। सत्येंद्र बाबू की बदली बजट विभाग के प्रभारी के रूप में हो गई। साल भर में सत्येंद्र जी ने न केवल एक फ्लैट खरीद लिया, बल्कि एक छोटी नई कार भी ले ली। अब उनके बच्चे सरकारी स्कूल के बदले अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ने लगे। उनकी धर्मपत्नी ने घर के काम के लिए एक फुल-टाइम नौकरानी रख ली है। उनके घर के बाहर हर सुबह अनार और मौसम्मी के छिलके फेंके देखे जाने लगे। नया सोफा और बड़ा टीवी भी आ गया। शंभु से उनका संबंध बढ़िया होता चला गया। ऑफिस में कहते मिलते, “जैसे सत्येंद्र बाबू के दिन फिरे, सबके दिन फिरें।”
खेमका जी की एक गुमटी चौक के एक कोने पर ट्रैफिक वालों की कृपा से लग गई थी। उन्होंने उस गुमटी की शुरुआत पानी की बोतल, नमकीन आदि के पैकेट से की। दो वर्षों में उनकी गुमटी के बगल में दो और गुमटियाँ लग गईं। खेमका जी के सामने प्रतिस्पर्धा का नया विषय आ गया। उन्होंने स्टेशनरी भी रखनी शुरू कर दी। दूसरी गुमटियों ने भी देखादेखी इसे जोड़ लिया। तभी अचानक एक बैंक मैनेजर से उनका परिचय हुआ। दस हजार मैनेजर पर खर्च कर उन्हें बड़ा ऋण मिला और साथ ही बैंक में स्टेशनरी आपूर्ति का मौका भी मिल गया। फिर जुगाड़ लगा ऐसा कि उस बैंक की कुल छह शाखाओं में वे आपूर्ति करने लग गए। स्टेशनरी पूरी आपूर्ति न कर बड़ा बिल देने का हुनर भी उन्हें बैंकों के अधिकारियों ने सिखाया। तीन वर्षों में वे अब चौक पर मॉल में कपड़े की बड़ी दुकान चलाते हैं और गुमटी पर बेटा बैठ रहा है। लोग कहते, “जैसे उनके दिन फिरे, सबके दिन फिरें।”
हमीद मोटर गैराज में काम करता था। खाने के लाले पड़े रहते। इसी बीच उसकी दोस्ती हनीफ और बिंदेश्वर से हुई। दोनों गाड़ियों को चोरी कर खपाने में लगे थे। हमीद ने मदद की। रात भर जगकर उसने गाड़ी के पुर्जे-पुर्जे खोल दिए। अब उन दोनों ने उसे कबाड़खाना खुलवा दिया। तीनों की पार्टनरशिप में पांच वर्षों में उनका नई गाड़ियों का बड़ा शो रूम खड़ा हो गया। अगले तीन वर्षों में तीनों के अलग-अलग शो रूम हो गए, लेकिन कबाड़खाना बंद नहीं किया। लोग कहते, “जैसे उनके दिन फिरे, सबके फिरें।”
हमारे यहां दिसंबर 2019 के बाद से ही नई सरकार आने के बाद बहुतेरों के दिन फिर गए। जो और जिनके लोगों ने कुर्सी पकड़ ली उनके दिन फिरे! जिन्हें छोड़नी पड़ी, उनके दिन नहीं फिरे। फिरे भी तो उनके दुर्दिन के। दिन फिरते हैं। फिराने वाला मिल जाए तो दिन फिरने में तेजी आ जाती है। हम फिरने वाले बने रहना चाहते हैं और फिराने वाले की खोज में लगे रहना भी चाहते हैं। यह लोकोक्ति अब पुरानी पड़ गई जब कहा जाता था, “जैसे उसके दिन फिरे, सबके फिरें।” अब नई लोकोक्ति चल पड़ी है, “जैसे किसी के दिन फिरे, हमारा भी दिन फिरे।” हम एक टापू पर बैठकर यह सोचते हैं कि कोई हमारा दिन फेर जाए। हम उसे खुद फेरने का परिश्रम क्यों करें? हमारा दिन फिर भी जाए, तब भी हम क्यों अपना समय व्यर्थ गंवाकर यह सोचें कि हम किसी के दिन फेर सकें तो उत्तम। इस फेरे में पड़ूँ ही क्यों? दिन फेरने के चक्कर में ध्यान यह रखना है कि खुद फेरे में न पड़ें। सयाने दूसरों को फेरे में डालकर अपने दिन फेर लेते हैं।