हम भारतवर्ष के गर्वित देशवासी एक से बड़ी एक विशाल समस्याओं से नहीं डरते। हम बड़ी हिम्मत के साथ उन्हें सफलतापूर्वक अनदेखा करते रहे हैं। न कर सके तो समस्याओं को देखकर अपनी आँखें इस तरह बंद कर लेते हैं जैसे पुलिस अपराध को देखकर। हमारे प्रयासों के बाद भी आजकल कोई बड़ी समस्या सुरसा की तरह सामने उठ खड़ी हो, पुरानी समस्या बवासीर की तरह अधिक पीड़ादायक हो जाए, दशकों से न सुलझने वाली समस्या बढ़कर कुम्भकर्ण का विकराल रूप ले ले, समस्या छोटी हो लेकिन अत्यंत दुखदायी हो, समस्या उठकर छाती पर मूंग दलने को उद्धृत हो—तब सरकारी गलियारे से यह चीख कर बताया जाता है कि सरकार कदम उठा रही है। हम नादान उस पवित्र स्थान को बड़े भक्ति भाव और विश्वास के साथ खोजते हैं जहाँ यह उठाए हुए कदम ने इस धरा को छुआ है। हमारे सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। तब कोई सयाना हमें बता जाता है कि सरकार ने तो कदम उठाने की ही सिर्फ बात की थी, धरा पर कदम रखने की बात तो कही ही नहीं गई। सरकार तो अपनी आलौकिक शक्तियों से हवा में रहती, चलती और समय पर उड़ने भी लगती है। इसलिए सरकार ने अपने कदम हवा में ही उठाए थे और फिर वही उठाए गए कदम हवा में ही अपनी पुरानी अवस्था को प्राप्त हो गए। लेकिन उठे कदम से हमें समस्याओं से मुक्ति का मुंगेरीलाल वाला दिवास्वप्न का असीम सुख दे गए!
मजे की बात तब होती है जब उठे हुए कदम का खूब नगाड़े बजाकर प्रचार किया जाता है ताकि सब देख सकें कि हवा में रहते, टँगे सरकार ने अपने कदम उठा लिए हैं। हमें नयनसुख मिल जाता है और फिर हम उन समस्याओं के साथ कैसे सुखपूर्वक जी सकते हैं इसका अभ्यास प्रारम्भ कर देते हैं। इस बीच समस्या से कोई दिवंगत स्थिति को प्राप्त भी हो जाता है तो उसे हम बीमार, कमजोर कहकर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लेते हैं। अधिक आध्यात्मिक स्थिति में हुए तो यही कहते हैं कि उसकी इतनी ही लिखी थी। जो आया है उसे तो एक न एक दिन जाना ही है। वे भाग्यशाली थे कि जल्दी निकल लिए, हमें समस्याओं के लिए छोड़ गए। कोई कहता, बड़ा काइंयां निकला, डरपोक निकला, न लौटने के लिए भाग गया। हमें तो अपना अभ्यास और तेज करना है। हम जोश में आकर समस्याओं से तेजी से समझौता कर बैठते हैं।
लोग बताते हैं कि सरकार चूँकि स्त्रीलिंग शब्द है इसलिए उठाए गए सौंदर्यपूर्ण कदम को ही लोग निहारने का सुख पाकर तृप्त हो जाते हैं। यह कदम किसी तरुणी के सुंदर कदम जैसा दिखने लगता है। यह हमें सौंदर्यबोध की ऊँचाई तक ले जाता है। सरकार को समर्थन देने वाले, विरोध करने वाले पाकीजा फ़िल्म का यह संवाद सस्वर कहने लगते हैं— “आपके कदम देखे। बहुत सुंदर हैं। इन्हें धरा पर मत रखिए, मैले हो जाएँगे।” सरकार सकुचाकर, मारे लज्जा के अपने कदम वापस अपने स्थान पर रख लेती है, जैसे यह कदम न हो, कृषि कानून हो!
किसी मंजे हुए राजनीतिक खिलाड़ी को सरकार के उठे हुए इस कदम में अनुपम सौंदर्य दिखता है। दिव्य दृष्टि से वे देख लेते हैं कि उठे हुए कदम स्वर्णाभूषणों से इतने सज्जित हैं कि उन्हें सिर्फ आभूषण ही दिखते हैं और कदम की सुंदर उंगलियाँ क्या, नख तक नहीं दिखते। घनघोर विरोधी इन कदमों को कुरूप देखते हैं और कह उठते हैं कि यह किसी तरुणी के नहीं, राक्षसी से कदम हैं। वे डर जाते हैं और चीख-पुकार मचाकर हो-हल्ला करने लगते हैं। हम आम आदमी रामायण की चौपाई की यह पंक्ति गाते रहते हैं— “जिसकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।” सरकार हम आम आदमी के लिए प्रभु से कम है क्या? हम ईश्वर से डरते हैं और तभी भक्तिकाल में प्रवेश करते हैं। भय बिन होत न प्रीति। जब सरकार को प्रभु मान ही लिया तो कदम तो प्रभु के चरण हैं। हम मंत्रमुग्ध होकर चरण वंदना को विवश हो जाते हैं। हम चिंतन करने लगते हैं कि शयन कर रहे प्रभु को हमारी तुच्छ समस्या ने परेशान कर दिया और उनकी निद्रा भंग कर दी। धिक्कार है हम पर। फिर यह सोचते हैं कि कितने परिश्रम से प्रभु ने निद्रा भंग कर अपने कदम उठाए होंगे! ईश्वर को कितना कष्ट हम तुच्छ जनों से हुआ। हम आत्मग्लानि के भाव से भर जाते हैं। इस पाप के दंड की कल्पना कर प्रभु भक्ति के अतिरिक्त अपने कल्याण के और कोई मार्ग न देखकर भजन गाने में लग जाते हैं। हमें गर्व होने लगता है कि भारतवर्ष एक आध्यात्मिक देश है। हमें इस आध्यात्म में पर्व का आनंद लेना चाहिए। इसलिए जब भी सरकार कदम उठाती है, चाहे वह इसे मैले होने के भय से धरा पर न भी रखे, हमारे लिए वही उठे हुए कदम हमारे उत्सव की नींव डाल देता है। यह परम सुख आर्यावर्त की इस पावन, पुनीत धरा को छोड़कर और कहाँ मिलेगा? अब स्वर्ग जाकर हम वापस तो नहीं आ सकते न!