जीवन के यात्रा में आगे बढ़ते हुए कई बार मतदान किया. जब छठी कक्षा में था तो उत्सुकता से घर के पास बने मतदान जेंडर में हुलकने गया. भीड़ को कुछ मुस्टंडे लाठी चलाकर भगा रहे थे. मैं एक दीवार से सट कर खड़ा हो गया. जब पूरी भीड़ छंट गयी तो एक मुस्टंडा अंदर कमरे में गया तो बाहर खड़े बचे मुस्टंडों ने कहा – सब मत छाप देना, कुछ मतपत्र छोड़ देना. तभी उनमें से एक की दृष्टि मुझपर पड़ी. मुझे देखकर बोलै – वोट देगा? मैं चुप रहा. कुछ देर बाद वोट छापकर वह मुस्टंडा बाहर निकला. मुस्कुराता हुआ बोला – हजार में से साढ़े नौ सौ वोट भैया जी ने नाम छाप दिया. मैं अपने इस पहले अनुभव को लेकर लौटा. जब मतदान करने योग्य हुआ तो अपने पहले मतदान में जब मेरी बारी आयी तो मुझे बताया गया कि हमने देर कर दी. मेरा वोट पड़ चुका है. मैं चाहूँ तो किसी अन्य के नाम का वोट दे सकता हूँ. मैंने मना कर दिया.
इसके बाद वर्षों नौकरी के चक्कर में मतदान कर ही नहीं सका. बहुत साल पहले मतदान की बात करते हुए रामलाल जी रोने लगे. बोले – पिछले पाँच चुनावों में मेरी चाची मुझसे पहले वोट कर के चली गयी और उनसे भेंट तक नहीं हुई . मैंने पूछा -क्या चाची साथ नहीं रहतीं? रामलाल बोले – अंतिम साँस तक तो वे साथ ही थीं. लेकिन मुझे कहाँ पता था कि लोकतंत्र में उनकी आस्था इतनी है कि उनकी आत्मा आकर वोट देकर चली जाती है और मैं उनसे मिल नहीं पाता . इतना कहकर वे फिर से फूट -फूटकर रोने लगे.
आज मैं मतदान के बहुत पहले से सतर्क था. चौकन्ना था. लेकिन हाय रे मेरा भाग्य! मेरे घर न कोई प्रत्याशी ही आया, न उनकी ओर से कोई लिफाफा ही आया. यहाँ तक कि एक छँटाक चावल या दारु का पौआ तक पँहुचा. आजतक हम अपने कर्तव्य के लिए चिंतित न हुए, लेकिन अधिकारों के लिए युद्धरत रहे. फिर नैतिकता के फेरे में वोट देने ले जाया गया. न कोई भीड़, न पर्ची लेने का झंझट. मतदान केंद्र पर न मारपीट, न लाठी – गोली चली. लठैतों को देखे दशकों हो गए. एक तक नहीं दिखे. बुझे और दुःखी मन से क्रमसंख्या बताया और फट से वोट दे दिया. यहाँ तक कि कोई फर्जी मतदान तक का हल्ला तक नहीं उठा. मतदान का सारा रोमांच धरा का धरा रह गया! ऐसे मतदान से क्या लाभ? प्रजातंत्र का पर्व सूना-सूना लगा. लगा कि मरणोपरांत किसी की बैठकी में आ धमका हूँ. लगता है, हमें प्रजातंत्र की अपनी अवधारणा बदलनी ही होगी.
– प्रशान्त करण