तीन महीने उस प्रदेश के सरकारी सभी कार्यालयों में खूब गहमा-गहमी रही। हर कोई इधर-उधर दौड़ता फिरने लगा। कार्यालय में सारे काम ठप्प। कोई कब आता और कब उपस्थिति पंजी पर हस्ताक्षर कर चला जाता, पता ही नहीं चलता। लोग दिनभर प्रतीक्षा करते और फिर अगले दिन आते। कइयों के तो लगातार तीन माह हो गए। उनकी सहनशक्ति चूकने लगी, तब कहीं जाकर उन्होंने एकमात्र उपलब्ध सरकारी चपरासी से पता किया। पता चला कि सरकार हर शनिवार को जन समस्याओं के निवारण के लिए उलहना सुनती है। फिर सब काम छोड़कर उन उलहनाओं का निष्पादन किया जाता है। सभी लोग निष्पादन में लगे हैं। जब निष्पादन हो जाएगा, तब कार्यालय पूर्व की भांति चलेगा। एक समाचार पत्र पढ़ने की लत से कुख्यात बुढऊ ने बताया – तीन माह पूर्व मुख्यमंत्री जी का आदेश निर्गत हुआ था कि नीचे से ऊपर तक सभी कार्यालय जन-उलहना सुनें, क्षेत्रों में घूमकर समस्याओं को सुनें और त्वरित गति से निष्पादन करें। सभी सुनने में लगे हैं। अंत में गंभीर होकर उन्होंने ज्ञान दिया – “चुनाव जो आने को है।”
ऊपर से उलहनों का पुलिंदा निचले कार्यालयों में पहुँचने लगा। तीसरे दिन स्मार पत्र आते, चौथे दिन बुलावा आ जाता। पीए साहब को मोटे माल देकर उलहने फड़वाये जाते। जो नहीं फटते, उनके निष्पादन और उत्तर देने में जूते घिसते और फटते। हर ऊपरी कार्यालयों में चढ़ावा बढ़ने लगा। नीचे वाले कष्ट से तिलमिलाने लगे। काम करने की भयंकर प्रतिकूल परिस्थिति जो आ धमकी थी। जनता और उनके उलहने क्यों इतने महत्वपूर्ण हो गए, सभी के यही उलहने थे।
तीन महीनों की दौड़-भाग से सभी कर्मचारी और अधिकारी त्रस्त थे। कार्यालय में न बैठ पाने से ऊपरी आमदनी बंद हो गई थी। घरों में प्रतिष्ठा में इसलिए अच्छी-खासी गिरावट आ चुकी थी। छूछे वेतन से काम चलाने के दुर्दिन आ गए थे। उधर नियंत्री पदाधिकारियों की डांटों से कलेजा मुँह को आया रहने लगा था। काम न करने की लत से अब काम करने से साँसें फूलने लगी थीं। सभी सरकारी कार्यालयों में हाहाकार मचा था। अनुभवी कहते – इतने वर्ष हो गए सरकारी नौकरी के, कभी ऐसे दुर्दिन नहीं देखने पड़े। हमारा वर्षों का अनुभव है कि कार्यालय आएं, न आएं, वेतन तो पाते थे। काम करना ही पड़ जाए तो ऊपरी कमाई होती थी, उसी से घर चलता और अतिरिक्त बचत होती थी। अब ऐसे दुर्दिन आए कि उलहने सुनने पड़ते हैं और निष्पादन करना पड़ता है। सरकारी सेवा का अर्थ तो यह हुआ करता था कि हम सरकारी हैं, जनता हमारी सेवा करे। इसका काट ढूंढने लगे। लोगों ने सचिवालय के एक खुर्रांट और दबंग बड़े बाबू से संपर्क किया। बड़े बाबू ने हँसते हुए कहा – “सरकारी आदेशों को इतनी गंभीरता से लेना ही क्यों? आदेश तो होते रहते हैं। चलिए, अब इसे त्रैमासिक करवा देते हैं। हम सब लोग कर्म के बंधन से बंधे हैं। हमारा कर्म कहता है कि सरकारी नौकरी वेतन पाने का है। कर्म का बंधन यह कहता है कि अगर कर्म भी करो तो सिर्फ वह भुगतान के बाद।” सब ऊपर वाले कार्यालयों को मौखिक रूप से कहवा दिया जाएगा कि कोई स्मार पत्र तक न दे। वह आदेश बाकी सरकारी आदेशों की भांति सिर्फ दिखावे के लिए ही हो। लोगों ने इस आश्वासन पर बड़े बाबू को बड़ा चढ़ावा चढ़ाया। अगले दिन सरकार का आदेश भी आ गया।
अब स्थिति पूर्ववत होने लगी। समस्याओं वाले पत्र, उलहने आते, उन्हें नीचे के कार्यालयों में ही फाड़कर जला दिया जाता। जनता पूर्व की भांति सहनशील हो गई। बुढऊ ने चाय की दुकान पर कह दिया – “मध्यावधि चुनाव टल गए।”