क्या एनडीए झारखंड में 2019 की गलतियों को सुधार पाएगा?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।  

क्या झारखंड में इस बार एनडीए गठबंधन अपनी पिछली रणनीतिक चूकों से कुछ सीखेगा? क्या चंपई सोरेन का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होना आदिवासी मतदाताओं को झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) से खींचकर भाजपा की ओर ले आएगा? या फिर चंपई सोरेन का यह कदम उनकी राजनीतिक प्रभावशीलता को कमजोर कर देगा? ऐसे में क्या यह गठबंधन हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली जेएमएम और कांग्रेस गठबंधन का मुकाबला कर पाएगा, या विपक्ष की चुनौतियों के सामने यह गठबंधन फीका पड़ जाएगा?

एनडीए के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या वे 2019 के विधानसभा चुनावों में हुई गलतियों को सुधारकर अपने समर्थक आधार को वापस हासिल कर पाएंगे? पिछली बार के चुनावों में आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन) और भाजपा के अलग-अलग चुनाव लड़ने से दोनों दलों को भारी नुकसान हुआ था। भाजपा को 2014 के चुनावों की तरह सफलता नहीं मिली, और आजसू, जो कि कुड़मी बहुल क्षेत्रों में प्रभावशाली मानी जाती थी, महज 2 सीटों तक सीमित रह गई। आजसू के खराब प्रदर्शन और भाजपा के चुनावी समीकरणों के बिगड़ने ने हेमंत सोरेन को सत्ता में वापसी का मौका दे दिया। अब सवाल उठता है कि इस बार भाजपा और आजसू क्या ऐसी कोई भूल दोहराएंगे, या फिर सही गठबंधन और रणनीति से अपनी स्थिति सुधारेंगे?

चंपई सोरेन का जेएमएम छोड़कर भाजपा में आना आदिवासी राजनीति में एक बड़ा बदलाव माना जा रहा है। लेकिन क्या उनके इस कदम से भाजपा को आदिवासी वोट बैंक मिलेगा? झारखंड में आदिवासी मतदाता राजनीतिक परिदृश्य का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, और हेमंत सोरेन की सरकार ने आदिवासी अधिकारों और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके उनकी समर्थन आधार को मजबूत किया है। ऐसे में, क्या चंपई सोरेन जैसे नेताओं का भाजपा में शामिल होना हेमंत सोरेन के इस आधार को कमजोर करेगा?

भाजपा की आदिवासी वोट बैंक में पैठ बनाने की कोशिश कोई नई बात नहीं है। 2019 के चुनावों में, भाजपा ने आदिवासी नेताओं के साथ गठजोड़ की कोशिश की थी, लेकिन यह सफल नहीं हो सका। चंपई सोरेन के शामिल होने से क्या भाजपा की आदिवासी राजनीति में कोई सकारात्मक बदलाव आएगा, या फिर यह भी एक विफल प्रयास साबित होगा? चंपई सोरेन की जेएमएम में अच्छी पकड़ थी, लेकिन भाजपा में आते ही क्या उनकी राजनीतिक धार कमजोर हो गई है?

2019 में, आजसू ने 53 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन केवल 2 सीटों पर जीत पाई। यह पार्टी के लिए एक बड़ी हार थी, खासकर क्योंकि कुड़मी बहुल क्षेत्रों में उसका प्रभाव काफी मजबूत था। अब सवाल यह है कि इस बार पार्टी की रणनीति क्या होगी? क्या आजसू अपनी पारंपरिक सीटों को बचा पाएगी या फिर वह नए उभरते राजनीतिक दलों के आगे कमजोर पड़ जाएगी?

झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) जैसी नई पार्टियों का उभरना आजसू के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। जेएलकेएम ने कुड़मी समाज और अन्य पिछड़े वर्गों के हितों को अपने एजेंडे में प्रमुखता दी है। 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 8.2 लाख से अधिक वोट हासिल किए, जो इस बात का संकेत है कि उनका प्रभाव झारखंड की राजनीति में बढ़ रहा है। खासकर कुड़मी बहुल इलाकों में, जहां आजसू का पारंपरिक वर्चस्व था, अब जेएलकेएम तेजी से अपनी जगह बना रही है। क्या आजसू अपने पारंपरिक वोट बैंक को बचाने में कामयाब हो पाएगी, या फिर यह नई पार्टी उसकी जमीन खिसका देगी?

भाजपा ने इस बार चुनाव की कमान असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सौंपी है। लेकिन क्या ये नेता झारखंड के स्थानीय मुद्दों को सही तरीके से समझ पाएंगे? झारखंड की राजनीति में बाहरी-भीतरी का मुद्दा, 1932 खतियान आधारित स्थानीयता नीति और भूमि अधिकार जैसे जटिल मुद्दे अहम भूमिका निभाते हैं। ऐसे में, क्या भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व झारखंड की जमीनी हकीकत को समझकर सही दिशा में कदम उठाएगा?

2019 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा का झारखंड में प्रदर्शन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था। रघुबर दास की सरकार को हार का सामना करना पड़ा, और हेमंत सोरेन की सरकार ने सत्ता संभाली। भाजपा को अपनी पिछली कमजोरियों से सीख लेनी होगी। अगर पार्टी झारखंड के मतदाताओं की जमीनी समस्याओं को नहीं समझ पाई, तो विपक्ष के लिए राह और भी आसान हो जाएगी। भाजपा को बाहरी-भीतरी विवाद, आदिवासी अधिकार, और स्थानीय रोजगार जैसे मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान देना होगा।

एनडीए गठबंधन के भीतर सीट बंटवारे को लेकर तनाव बरकरार है। आजसू को 6 से 8 सीटें मिल सकती हैं, लेकिन क्या यह पार्टी के लिए पर्याप्त होगा? सुदेश महतो के लगातार दिल्ली दौरों और अमित शाह से हो रही बैठकों से यह साफ संकेत मिलता है कि गठबंधन के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। अगर समय पर सीट बंटवारे को लेकर सहमति नहीं बनती, तो इसका सीधा फायदा विपक्ष को मिल सकता है।

भाजपा और आजसू को यह समझना होगा कि 2019 में अलग-अलग चुनाव लड़ने की गलती ने उन्हें महंगा सबक दिया था। अगर इस बार भी समय रहते समझौता नहीं होता, तो इसका नुकसान दोनों दलों को झेलना पड़ेगा। क्या एनडीए गठबंधन में इस बार सही समय पर सामंजस्य बन सकेगा?

जेएलकेएम ने झारखंड के ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की है। पार्टी ने ओबीसी आरक्षण, स्थानीय रोजगार और आदिवासी अधिकारों जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है। यह उसे ग्रामीण और पिछड़े वर्गों में तेजी से लोकप्रिय बना रहा है। आजसू और भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक अब जेएलकेएम की ओर खिसक रहा है। क्या एनडीए गठबंधन इस चुनौती का सामना कर पाएगा?

आखिरकार, सवाल यही है कि क्या एनडीए गठबंधन इस बार 2019 की गलतियों से कुछ सीख पाएगा? 2019 में अलग-अलग चुनाव लड़ने का फैसला उन्हें महंगा पड़ा था, और अब सीट बंटवारे और नई उभरती पार्टियों के चलते उनकी राह और भी कठिन हो गई है। भाजपा और आजसू को न केवल अपने गठबंधन के भीतर सामंजस्य बनाना होगा, बल्कि स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर झारखंड की जनता के दिलों में फिर से जगह बनानी होगी।

आने वाले चुनावों में एनडीए की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वे अपनी रणनीति में कितना बदलाव कर पाते हैं। क्या भाजपा-आजसू का गठबंधन समय पर सही निर्णय लेकर विपक्षी दलों की बढ़ती चुनौती का सामना कर पाएगा, या फिर 2019 की तरह इस बार भी गलतियों के कारण उन्हें हार का सामना करना पड़ेगा?