सर्वप्रथम क्यों न हम शिक्षा पर प्रारंभ से ही अपनी बात प्रारंभ करें, ताकि हमको इसके तह तक जाते-जाते इसके प्रत्येक आयामों, प्रत्येक चरणों का पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाय। सबसे पहले सवाल उठता है कि शिक्षा हम मनुष्यों के जीवन में क्यों आवश्यक है? और शिक्षा को क्यों महत्व दें..? इसके उत्तर में हम कह सकते हैं कि शिक्षा हमें राष्ट्र समाज, समुदाय अंततः परिवार में प्रेम, सहृदयता, सहयोग, सहानुभूति, ईमानदारी, व्यक्तित्व निर्माण कर्तव्यपालन आदि आयामों का परिचय तो चलो शिक्षा द्वारा दिया जा रहा है,… लेकिन शिक्षा की पद्धति क्या हो? और कैसी हो ? तब हम इसका परिचय इस प्रकार दे सकते हैं कि उन नियमों सिद्धांतों व्यवहारों के तहत जिसे हम समझ कर शिक्षा प्रदान करने का माध्यम चुनते हैं। वहीं शिक्षा पद्धति कहलाती है। जिस प्रकार प्राचीनकाल में छात्र गुरु के आश्रम में रहकर ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करते हुए एक निश्चित अवधि तक विद्याध्ययन करता था। उसका वह जीवन छात्र जीवन कहलाता था, किंतु आज के युग में किसी स्कूल या कालेज में निश्चित अवधि तक नियमित रूप से और पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा प्राप्त करना हो तो छात्र जीवन कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति और ज्ञानार्जन के दूसरे क्षेत्र भी है, लेकिन जीवन की प्रारंभिक अवस्था में शैक्षिक केंद्रों में शिक्षा प्राप्त किया जाता है। इस संबंध में आचार्य विनोबा भावे ने कहा है-“शिक्षा जीवन के बीच से आनी चाहिये और शिक्षा का अर्थ जीने की कला होना चाहिये।”
शैक्षिक जीवन एक तपस्वी का जीवन होता है जिसमें दुनिया की सभी बातों से विरत अलग रहकर केवल शिक्षा की ओर ध्यान लगाना पड़ता है। लेकिन मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना ही शिक्षा का उद्देश्य नहीं है। इससे सैद्धांतिक शिक्षा भले ही उपलब्ध हो जाती है व्यावहारिक शिक्ष जो जीवन निर्माण की एक कला है, वह प्राप्त नहीं हो पाती है। इसके लिये अनुशासित होकर व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करना भी बहुत आवश्यक है। हमें इसके उत्तमोत्तम परिणाम के लिये आज के संदर्भ में शिक्षा पद्धति के सर्वोत्तम पद्धति की खोज करना परम आवश्यक है।
पूर्वाभास:- परतंत्रता के युगमें अंग्रेजी शासन ने भारत की शिक्षा पद्धति में ऐसी किसी विशेषता का समावेश नहीं किया, जिससे छात्र समाज एवं राष्ट्र के लिये अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक हों। हमारी शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने के कारण छात्र जीवन का लाभ विद्यार्थी नहीं उठा पाते और छात्र जीवन की समाप्ति के बाद भी स्वावलंबी नही बन पाते हैं। स्वाधीनता के प्राप्ति के बाद शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन करने के लिये योजनायें प्रस्तुत की गई एवं पूर्ण तथा नवीन शिक्षा-पद्धति के निर्माण के लिये निरंतर प्रयोग किये गये। कुछ सफलताये मिली, कुछ असफलतायें भी हाथ लगीं। शिक्षा के “माध्यम से देश के युवा-जगत में नवीन चेतना उत्पन्न करने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। प्रयत्न तो चल रहे हैं मगर स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक से भी अधिक अवधि बीत जाने पर भी यह मात्र प्रयोग ही बनकर रह गया है। सच तो यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में जिस आमूल परिवर्तन की आवश्यकता थी, वह हो ही नहीं पायी। अंग्रेजों द्वारा अपनायी गई शिक्षा पद्धति का बहुलांश वर्तमान शिक्षा पद्धति में यथावत चला आ रहा है, सर्वप्रथम इसमें परिवर्तन की महती आवश्यकता है।
वर्ताकार दोष:- आज छात्रों के सम्मुख अनेक समस्यायें हैं वैसे तो उन समस्याओं के कई कारण हैं। लेकिन प्रमुख कारण तो यह है कि वर्तमान शिक्षा पद्धति में अनेक खामियां हैं। आज की शिक्षा पद्धति में छात्रों के चरित्र निर्माण की और तनिक भी ध्यान नहीं दिया जाता है। न तो शिक्षकों में छात्रों के प्रति स्नेह की भावना होती है और न ही छात्रों में शिक्षकों के प्रति श्रद्धा। आज पठन पाठन की बात महज औपचारिकता बनकर रह गयी है। दूसरी बात यह है कि आज की शिक्षा पद्धति जीवनोपयोगी भी नहीं रह गयी है। आज शिक्षा प्राप्त कर भी छात्रों का भविष्य अंधकारमय ही रहता है। लक्ष्यविहीन शिक्षा प्राप्त कर वे अंधकार में भटकते रहते हैं। इसी स्थिति में उनका पथ भ्रष्ट होना स्वाभाविक है। सामाजिक वातावरण भी छात्रों के अनुकूल नहीं है, आज के नेतागण छात्रों को बहकाने में ही लगे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्ष बाद भी शिक्षा-पद्धति में सुधार के नाम पर हमेशा प्रयोग ही हो रहे हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठ्यक्रम जब शिक्षकों की समझ से बाहर के होते हैं तो छात्रों के लिये कुछ कहने की बात ही नहीं।
आज छात्रों के पढ़ने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। उनके विद्यालय अथवा महाविद्यालय कोलाहला भरे स्थानों पर होते हैं। उनके लिये छात्रावासों की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। भारत के अधिकांश छात्र निर्धन वर्ग के हैं। उनके तन पर पर्याप्त वस्त्र हैं और न पेट में अन्न। ऐसी स्थिति में अध्ययन की ओर उनकी रुचि कैसे हो सकती है। बहुत से प्रतिभाशाली छात्रों की प्रतिभा इन्ही समस्याओं के कारण दवी रह जाती है।
आज की शिक्षा पद्धति कैसी हो:- हमें वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के साथ भी तालमेल बिठाकर परिवर्धित, परिसंस्कृत, संशोधित नयी शिक्षा प्रणाली का विकास करना होगा, जिसमें शिक्षा जैसी विराट ब्रम्ह स्वरुप कार्य अंतर्गत छात्र, शिक्षक, सदाचार, कर्तव्य, व्यक्तित्व निर्माण, कला, साहित्य, सहित परिवार, समाज, देश के साथ शैक्षिक केन्द्रों का उचित तालमेल व समन्वय होना अत्यावश्यक है। छात्रों का रहन-सहन सादा और नियमित होना चाहिए। छात्रों को अनुशासन का वास्तविक पाठ रहन-सहन के माध्यम से ही सीखना चाहिये। शारीरिक श्रम व्यायाम आदि के द्वारा छात्रों के स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिये। महात्मा गांधी ने छात्र जीवन में ब्रम्हचर्य का पालन अत्यंत आवश्यक माना है। खासकर आज के परिवेश में जो में समस्यायें सामने आ रही हैं इन समस्याओं के समाधान के लिये भी इस ओर पूर्व प्रयत्नशील की होना चाहिये। देश का भविष्य अंधकार में न गिर पड़े, इसके लिये छात्रों को नैतिक शिक्षा के साथ-साथ जीवनोपयोगी शिक्षा की व्यवस्था आवश्यक है। शिक्षा पद्धति में परिवर्तन के लिये कोई स्थाई और ठोस आधार निश्चित किये जाय। इस दिशा में छात्र स्वयं प्रयत्नशील हो सकते हैं, किंतु उनका आधार असामाजिक नहीं होना चाहिये। हड़ताल, घेराव, तोडफोड़ या भोंडे प्रदर्शन से उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। आज की शिक्षा पद्धति ऐसी हो कि विद्यार्थी स्वयं ही भावी जीवन निर्माण के लिये उन्मुख हो। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि शिक्षा पद्धति का महत्व कितना ज्यादा है। समाज में व्याप्त अनैतिकता, अंधविश्वास, रूढ़ि मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार इत्यादि को कैसे दूर किया जा सकता है। समाज को कैसे स्वच्छ बनाया जा सकता है। इन विषयों को हमें अपनि शिक्षा पद्धति में शामिल करना ही होगा। गांधीजी इसी पर सबसे अधिक बल देते थे वे कहते थे कि छात्रों को देश की राजनीति के गुणदोष, जातिप्रथा की बुराईयों न और संप्रदायों के नाम पर फैले पाखंड इत्यादि. पर विचार करना चाहिये तथा अपनी संस्कृति के मूल तत्वों से अवगत होना चाहिये।
अंततः अपनी बातः- अभी तक हमने शिक्षा क्या है, क्यों दी जाय तथा कैसी दी जाय और उसके तहत होने वाले प्रभावों को देखते हुए वर्तमान की शिक्षा प्रणाली को असंतोषजनक स्थिति में पाया है। तब मेरे मन में यह बात उठ रही है कि “जब तक नहीं चेतेंगे हम आप सभी, तब तक नहीं सुधरेगा यह समाज ।”वैसे तो और भी कई बातें हैं जो वर्तमान शिक्षा पद्धति में सुधार की अपेक्षा रखती हैं जैसे पहली बात तो यह है कि शिक्षा पद्धति ऐसी होनी चाहिये जो ऊपर से लादी गयी बोझ मालूम न पड़े, और अध्ययन मनन की ओर विद्यार्थियों की मनोवृत्ति को आकर्षित करे। यह कार्य थोड़ा कठिन तो अवश्य है मगर इसके कारण वर्तमान की शिक्षा पद्धति की कई समस्याओं का हल अपने ही आप निकल आयेगा। या यह कह सकते हैं। कि जब तक हम आप सभी शिक्षा पद्धति के सर्वोत्तम परिणाम व संतोषजनक स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयत्न-प्रण नहीं करते तब तक कुछ भी नहीं हो सकता है।
“”शेष है दिनमान,
जीवन का… पुनर्निर्माण कर।
ध्वस्त जो कुछ हो गया है ।।
, क्या कहो वह खो गया है…
अंकुरित हो जायेंगे सब ,……
बीज बो गया है।
शेष है दिनमान…… ।।
– सुरेश सिंह बैस शाश्वत