सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश।
राष्ट्र की एकता, शक्ति और प्रगति का मुख्य आधार है। जब देश के नागरिक एकजुट होते हैं, तो राष्ट्र भी सक्षम और समृद्ध बनता है। लेकिन भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, एकता की राह में कई बाधक तत्व हैं। इनमें प्रमुख हैं आर्थिक और सामाजिक असमानता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद। इन समस्याओं का मूल अहंकार और स्वार्थ में है, जो राष्ट्रीय एकता को बुरी तरह प्रभावित करता है। इस संपादकीय में इन बाधक तत्वों की गहराई से समीक्षा की जाएगी और उनके समाधान के संभावित रास्तों पर चर्चा की जाएगी।
आर्थिक और सामाजिक असमानता राष्ट्रीय एकता के प्रमुख बाधक तत्व हैं। असमानता का मूल कारण अहंकार और स्वार्थ है, जो समाज में विभाजन को जन्म देता है। जब विभिन्न वर्गों के लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से असमान होते हैं, तो उनकी आपसी समझदारी और सहयोग में बाधा आती है। इस असमानता को दूर करने के लिए अहंकार और स्वार्थ का विसर्जन अनिवार्य है। एकता की भावना तब ही उत्पन्न होगी जब सभी वर्ग समान अवसर और संसाधनों का लाभ उठा सकें।
वर्तमान में, जातिवाद और सामाजिक भेदभाव भी इस असमानता को बढ़ावा देते हैं। खासकर हिन्दू समाज में जातीय प्रथा और जातीय विभेद राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। कई राजनीतिक पार्टियाँ अपने स्वार्थ के लिए जातीय संरचना को बढ़ावा देती हैं, जातियों को अलग-अलग श्रेणियों में बांट कर उन्हें एक-दूसरे से बड़ा या छोटा साबित करने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार की विभाजनकारी नीतियाँ राष्ट्र की एकता को कमजोर करती हैं और सामाजिक ताने-बाने को हिला देती हैं।
जातिवाद का प्रभाव केवल सामाजिक असमानता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय एकता को भी प्रभावित करता है। जातियों के बीच भेदभाव और संघर्ष स्वार्थपूर्ण राजनीति और अहंकार का परिणाम हैं। जब लोग जाति-उपजातियों में बंटे रहते हैं, तो उनके बीच आरक्षण और संरक्षण की भावना उत्पन्न होती है, जिससे राष्ट्र की भावना कमजोर होती है।
हालांकि यह सच है कि कई लोगों को संरक्षण और आरक्षण की आवश्यकता है, लेकिन इसका आधार जातीय होना उचित नहीं है। इसके बजाय, आर्थिक और सामाजिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। जातीय आधार पर आरक्षण से केवल भ्रांतियाँ और भ्रष्टाचार उत्पन्न होंगे। राष्ट्र की एकता के लिए जातिवाद का अंत और सामाजिक समरसता की दिशा में प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है।
भाषा एक महत्वपूर्ण माध्यम है, जिसके जरिए हम अपने विचार दूसरों तक पहुँचाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मातृभाषा से लगाव होता है, लेकिन इसे राष्ट्रीय एकता की राह में बाधक नहीं बनना चाहिए। भाषाई विविधता भारत की पहचान है, लेकिन इसे एकता की बाधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
भाषावाद के कारण विभिन्न भाषाओं और बोलियों के लोग एक-दूसरे से संवाद करने में कठिनाइयों का सामना करते हैं। यह स्थिति सामाजिक तनाव और आपसी समझ की कमी को जन्म देती है। राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाई समानता और समावेशिता को बढ़ावा देना आवश्यक है। विभिन्न भाषाओं और बोलियों का सम्मान करते हुए, संवाद और समझ को प्रोत्साहित करना चाहिए।
क्षेत्रवाद भी राष्ट्रीय एकता के लिए एक महत्वपूर्ण बाधक तत्व है। भारत में क्षेत्रीय पहचान और स्वायत्तता की भावना मजबूत है, लेकिन इसका अत्यधिक प्रदर्शन क्षेत्रीय तनाव और संघर्ष को जन्म देता है। क्षेत्रवाद और राज्यवाद की अत्यधिक उच्छृंखलता राष्ट्र की एकता और अखंडता को खतरे में डालती है।
एक मकान के कई कमरे होते हैं, लेकिन सभी कमरे एक मकान के हिस्से होते हैं। इसी प्रकार, भारत के विभिन्न क्षेत्र भी एक राष्ट्र के हिस्से हैं। एक माकन बड़ा हो या छोटा , वह ‘कमरों ‘ के नाम से कभी नहीं पहचाना या पुकारा जाता है। उस मकान का ही नामकरण होता है। साथ ही उस मकान के अनेक कमरों के अनेक निवासी अपना परिचय भी उक्त मकान-वासी के रूप में ही देते हैं। खास कमरों के निवासी अपना-अपना कमरा सुन्दर रखते हैं। उन्हें अपना कमरा अलग से ‘सुरक्षित’ रखने या करने की जरुरत नहीं होती। और उन अनेक कमरों के मध्य आवागमन की जितनी गुंजाइशें होती हैं , मकान उतना ही सुन्दर और सुविधाजनक माना जाता है। फिर भारत में ये क्षेत्रवाद और राज्यवाद की उच्श्रृंखलता का औचित्य क्या है ?
क्षेत्रीय विशेषताओं और विविधताओं का सम्मान करते हुए, एकजुटता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। क्षेत्रवाद की भावना को नियंत्रित करने और सभी क्षेत्रों को एक समान सम्मान देने की दिशा में प्रयास आवश्यक हैं।
जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और अन्य विवादों के पीछे अक्सर स्वार्थी तत्व होते हैं जो अपनी राजनीतिक और व्यक्तिगत लाभ के लिए इन समस्याओं को बढ़ावा देते हैं। इन स्वार्थी तत्वों की वजह से राष्ट्रीय एकता की राह में अड़चने आती हैं। इसलिए, इन स्वार्थी तत्वों की पहचान और उनके प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए।
राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं। सबसे पहले, आर्थिक और सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए समावेशी नीतियाँ अपनानी चाहिए। जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ जागरूकता फैलाना और शिक्षा के माध्यम से इन समस्याओं का समाधान करना चाहिए। भाषाई विविधता का सम्मान करते हुए, संवाद और समझ को बढ़ावा देना चाहिए। क्षेत्रीय विशेषताओं का सम्मान करते हुए, एकता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना चाहिए।
स्वार्थी तत्वों की पहचान और उनके प्रभाव को कम करने के लिए राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर सक्रिय उपाय किए जाने चाहिए। राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए सभी नागरिकों को अपने-अपने कर्तव्यों को समझना और निभाना चाहिए।
राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और अन्य विवादों का समाधान करना आवश्यक है। इन बाधक तत्वों का मूल अहंकार और स्वार्थ में है, जिसे दूर करने के लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा। आर्थिक और सामाजिक असमानता को दूर करने, जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ जागरूकता फैलाने, भाषाई विविधता का सम्मान करने, और क्षेत्रीय विशेषताओं का सम्मान करते हुए एकता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देने के प्रयास महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार, राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने और एक मजबूत राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सभी नागरिकों को समर्पित प्रयास करना चाहिए।
जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और ऐसे अनेक विवाद राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्व हैं , और ऐसे विवादों को लेकर कदम कदम पर उकसाने वाले स्वार्थियों को भी राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्व ही मन जाना चाहिए। इनका निराकरण कैसे हो , यह तो आम भारतीयों के निर्णय पर निर्भर है।