झारखंड में वंशवाद का नया अध्याय, समर्पित कार्यकर्ताओं का क्या होगा ?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश। 

झारखंड में इस बार विधानसभा चुनाव का नया रंग जमने वाला है, और इसकी वजह भी खास है। चुनावी मैदान में चूहे-बिल्ली की तरह कूदते राजनीतिज्ञों की बात नहीं कर रहे, बल्कि उन नेताओं की बात कर रहे हैं जो अब बुढ़ापे के ढलते सूरज में अपनी राजनीतिक विरासत को संजोने में लगे हुए हैं। यह वे नेता हैं जिनके लिए अब दौड़-भाग करना मुश्किल है, लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चों के कदम राजनीति के मैदान में उनकी जूती के निशान पर चलें। जाहिर है, अब राजनीति में वंशवाद का नया अध्याय शुरू हो चुका है, और इसके साथ ही कुछ गंभीर सवाल भी उठ रहे हैं।

सवाल उठता है कि जब ये नेता अपने बेटे-बेटियों को अपने-अपने क्षेत्रों का उत्तराधिकारी बना देंगे, तो वर्षों से मेहनत कर रहे सैकड़ों समर्पित कार्यकर्ताओं का भविष्य क्या होगा? क्या उनकी मेहनत और त्याग सिर्फ इसीलिए हैं कि वे अगले चुनावी हलचल में अपने नेताओं के बेटे या बेटियों की राजनीति चमकाने में सहायक बन सकें?

पारंपरिक राजनीति के इस महाकवि ने अब अपने पारंपरिक फार्मूले में बदलाव किया है। इसके लिए उन्होंने अपने बेटों, बेटियों और पत्नी को राजनीति के अखाड़े में उतारने की पूरी तैयारी कर ली है। कुछ नेताओं की स्थिति तो ऐसी हो गई है कि वे खुद अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर निराश हो चुके हैं, लेकिन अपने परिवार की राजनीति को चमकाने की जुगत में लगे हैं।

उदाहरण के लिए, कांग्रेस के मंत्री डॉ. रामेश्वर उरांव की उम्र अब 77 वर्ष हो चुकी है। अब उन्हें खुद भाग-दौड़ करना मुश्किल हो रहा है, और इसी स्थिति का लाभ उठाते हुए वे अपने बेटे रोहित उरांव को लोहरदगा से चुनावी मैदान में उतारना चाहते हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि डॉ. रामेश्वर उरांव अपने बेटे को टिकट दिलाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके बेटा रोहित उरांव राजनीति में सफलता प्राप्त कर पाएंगे, या यह केवल उनके परिवार की राजनीति को नया रंग देने की एक चाल है?

वहीं, चंद्रशेखर दुबे उर्फ उदई दुबे, जो कई बार विधायक रहे हैं, अब खुद को राजनीति से अलग करने की घोषणा कर चुके हैं। उनकी उम्र भी अब काफी हो गई है। उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी है कि उनका बेटा अभय दुबे उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी होंगे और विश्रामपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ेगा। यह स्थिति साफ करती है कि क्या यह केवल एक परिवार का राजनीतिक विस्तार है, या वास्तव में उनके बेटे में राजनीति के लिए कोई विशेष गुण हैं?

इसी तरह, पलामू के विश्रामपुर सीट से भाजपा के विधायक और पूर्व मंत्री रामचंद्र चंद्रवंशी भी अब अपने बेटे ईश्वर सागर चंद्रवंशी को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना चाहते हैं। यह देखा जाए तो बाप-बेटे की जोड़ी अब राजनीति के मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है। सवाल यह है कि क्या उनकी यह योजना वास्तव में क्षेत्रीय विकास को ध्यान में रखकर की जा रही है, या फिर यह एक परिवार के राजनीतिक साम्राज्य को बढ़ाने की कोशिश है?

अभी हाल ही में हजारीबाग जिले की बरही सीट से कांग्रेस विधायक उमाशंकर अकेला ने भी अपने बेटे रविशंकर अकेला को अपना उत्तराधिकारी बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। उमाशंकर अकेला की उम्र भी अब राजनीति की तेज-तर्रार दुनिया के लिए आड़े आ रही है। लेकिन इस स्थिति में भी उनका बेटा रविशंकर अकेला राजनीति में कदम रखने की तैयारी कर रहा है। यह सवाल भी उठा है कि क्या इस परिवार की राजनीति में वाकई कुछ नया देखने को मिलेगा, या फिर यह केवल वंशवाद का एक और उदाहरण है?

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि झारखंड में वंशवाद का नया दौर शुरू हो चुका है। नेताओं की यह कोशिश अब केवल अपने परिवार को राजनीति में स्थापित करने की हो गई है, और इससे कार्यकर्ताओं की मेहनत और समर्पण की कीमत कम हो रही है।

सवाल यह भी है कि अगर राजनीति के ये वंशवादी आकाओं के बेटे-बेटियों के लिए ही राजनीति के दरवाजे खोल दिए जाएंगे, तो उन हजारों समर्पित कार्यकर्ताओं का भविष्य क्या होगा जिन्होंने वर्षों से राजनीति की धारा को संजोए रखा है? क्या उनकी मेहनत और त्याग सिर्फ इसलिए है कि वे अब वंशवाद के चक्रव्यूह में उलझकर रह जाएं और अपने नेताओं के बच्चों की राजनीति चमकाने में योगदान दें?

यह स्थिति झारखंड की राजनीति में एक गंभीर प्रश्न खड़ा करती है। क्या हम एक ऐसी राजनीति के युग में प्रवेश कर रहे हैं जहां वंशवाद के झंडे तले सच्ची मेहनत और ईमानदारी की कोई कीमत नहीं रह जाएगी? क्या यह समय नहीं है कि राजनीति में केवल वंशवाद की बजाय वास्तविक योग्यता और समर्पण को महत्व दिया जाए?

जवाब देना आसान नहीं है, लेकिन एक बात तो साफ है कि झारखंड की राजनीति में वंशवाद का यह नया अध्याय निश्चित ही कई सवाल खड़ा करता है। जब तक इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाएगा, तब तक समर्पित कार्यकर्ताओं की मेहनत का मूल्य हमेशा अधूरा रहेगा। सभी नेता अपने परिवार की चमक-धमक में व्यस्त हैं, और कार्यकर्ता अपनी मेहनत की कीमत चुकाने में। इस तरह के खेल में सबसे अधिक चूना किसे लगेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन फिलहाल, झारखंड की राजनीति में वंशवाद के इस चमकदार अध्याय के बीच सच्ची मेहनत की आवाज कहीं खो सी गई है।