- Purnendu Sinha ‘Pushpesh’
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यह वह पवित्र भूमि है, जहां सच्चाई की मशाल लेकर जनता की आवाज़ बुलंद की जाती है। परंतु, आधुनिक दौर में इस मशाल की लौ कमजोर होती दिखाई दे रही है, और उसके बदले एक चमचमाता लिफाफा उसकी जगह ले रहा है। यह लिफाफा साधारण नहीं, बल्कि कुछ वजनदार होता है—कभी नकद से भरा हुआ, तो कभी सरकारी विज्ञापनों के वादों से लदा हुआ।
राष्ट्रवादिता मानो इन पत्रकारों के अंदर कभी थी ही नहीं। ये पत्रकारिता में ‘कमाई’ के लिए आये हुए हैं। ये सच है कि किसी भी संस्थान को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए ‘धन बल’ की भी आवश्यकता होती है। और मीडिया संस्थान चलने के लिए ‘विज्ञापन’ छोड़ कर अन्य कोई दूसरा वैधानिक आयस्रोत होता भी नहीं। अब चाहे वह विज्ञापन सरकारी हो या अन्य सांस्थानिक। हालांकि इससे दीगर एक आयस्रोत उन समाजसेवी धनिकों के यहाँ से भी निकलता है जो राष्टहित या समाजहित में मीडिया संस्थानों को गाहे-ब-गाहे आर्थिक सहायता प्रदान कर दिया करते हैं। किन्तु ऐसे धनिक अब बचे ही कितने हैं! आजकल ज्यादातर धनिक ऐसे उक्त ‘दान’ को ‘इन्वेस्टमेंट’ की तरह ही करते पाए जाते हैं। स्वार्थी पत्रकारों की ईमानदारी और निष्पक्षता को खरीदने के लिए।
लिफाफाखोर पत्रकारिता का जन्म तब हुआ, जब ईमानदारी और निष्पक्षता को नोटों के गद्दे के नीचे दबा दिया गया। यह पत्रकार अपने कलम को स्याही नहीं, बल्कि चेकबुक की रोशनाई से चलाते हैं। खबरों का चयन उनकी महत्ता से नहीं, बल्कि उनके साथ आए लिफाफे की मोटाई से होता है।
आजकल पत्रकारिता में पेड न्यूज़ की चर्चा आम हो गई है। जहां एक पत्रकार के लिए खबर का मतलब जनहित होता था, वहीं अब खबर का मतलब “कौन कितने में खरीद सकता है” हो गया है। एक राजनेता के मंच पर किसी पत्रकार को फूलों की माला पहने देखिए और समझ जाइए कि अब जनता की खबरें नहीं, बल्कि नेताओं के विज्ञापन बिकेंगे।
लिफाफों की भी कई किस्में होती हैं। कुछ लिफाफे सीधे नकदी से भरे होते हैं, तो कुछ में तोहफों की व्यवस्था रहती है। एक बड़े मीडिया हाउस के वरिष्ठ संपादक महोदय को हाल ही में एक नई गाड़ी की चाबी मिली, क्योंकि उन्होंने एक बड़े उद्योगपति के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने से परहेज़ किया। वहीं, कुछ पत्रकारों के लिए सरकारी ठेकों का आश्वासन ही सबसे बड़ा लिफाफा है।
लिफाफाखोर पत्रकार सबसे बड़ा स्वांग रचते हैं—ईमानदारी का। वे अपनी चमकती हुई चमड़ी को नैतिकता का आवरण देकर पेश करते हैं। उनकी हर बात में “सच्चाई” और “जनता का हित” घुला हुआ दिखता है, लेकिन उनकी कलम वहीं रुकती है, जहां उनके स्पॉन्सर की सीमा तय होती है।
आम जनता कभी-कभी सवाल उठाती है: “भाई, यह पत्रकार हमारी समस्या क्यों नहीं दिखा रहे? यह खबर क्यों गायब है?” असल में, समस्या यह है कि आपका मुद्दा लिफाफे में फिट नहीं बैठता। अगर आपके मुद्दे से जुड़े व्यक्ति या संस्थान ने पर्याप्त लिफाफा नहीं भरा, तो आपकी आवाज़ दब जाएगी। शायद इसीलिए अब इनके सम्बोधन में ‘पत्रकार जी’ या ‘पत्रकार महोदय’ काम सुनने को मिलता है।
बदलते युग में पत्रकारिता जगत में भी बदलाव आएगा , सच है। किन्तु उसकी विश्वसनीयता की सीमा भी बदलते युग के इन्ही पत्रकारों को तय करनी है; करनी होगी। चोर और भिखारी भी काफी धन कमा लेते हैं , किन्तु कितने ‘सम्मान ‘ के साथ ? !