न हुई भेंट उनसे……………….प्रशान्त करण

यह कौतुहल का विषय ही नहीं और न ही विषय है प्रेम का . न किसी प्रेमिका से न मिलने का , न जिनसे आवश्यक कार्य हो उनसे न मिलने का . न कोई पूर्व निर्धारित निमंत्रण था और न ही कोई जान – पहचान . हमें तो स्वयं उनसे मिलने का कोई विचार भी दूर तक नहीं आया था . कभी सोचा भी नहीं था कि कभी उनसे मिलने भी जाऊँगा . मेरा उनसे न कोई लेना – देना , न दोस्ती . बस उनके बारे में सुन रखा था . सुनने को हम अच्छा -बुरा कुछ भी सुन लेते हैं . खरी – खोटी से भी बचकर नहीं निकलता – पूरा सुनता हूँ . घर से बाहर तक . जिनका स्वार्थ सधा उनके लिए वह अच्छे थे , जिनका नहीं सध सका वे उनकी आलोचना नहीं बुराई करते मिले . मेरा भाव उनके प्रति निर्विकार रहा . उनके होने , न होने से मैं कहीं प्रभावित था ही नहीं . वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे कि उनसे भय खाया जाए . क्योंकि अब इससे खराब परिस्थिति में कोई मेरा और क्या बिगाड़ सकता . बिगाड़ की छोड़ भी दूँ तो जुगाड़ का भी अभिलाषी कभी नहीं रहा . हम दोनों एक शहर में रहते हुए मानो पृथ्वी के दो छोरों पर बैठे थे . वे न मेरी जाति के ही थे , वैसे भी जातिवाद का उचित लाभ कभी मेरे भाग्य में रहा ही नहीं . वे आज की तिथि में प्रभावकारी थे , मैं कभी नहीं रहा -नदी के दो पाट . उनके विचार , आचरण , व्यवसाय , पसंद सब मेरी प्रकृति के विपरीत . सेवक मैं भी रहा सरकारी . लेकिन वे जन सेवक ठहरे . जन सेवक के बारे में लोग बताते हैं कि वे जनता की सेवा करने के लिए होते ही नहीं , अपितु जनता से सेवा लेने के निमित्त मात्र होते हैं . मैं सिर्फ अपने अन्तःपुर की सेवा करता हूँ , बचे -खुचे समय में हिंदी साहित्य की सेवा का ढोंग करता हूँ . फिर उनसे मेरा मिलना ही क्यों ? पर बात यह रही कि उनसे भेंट नहीं हुई .

बताया गया कि उनकी दिनचर्या मेरी दिनचर्या के विलोम है . वे दिन के बारह बजे उठते हैं और संध्या सार्वजनिक रूप से प्रकट होते हैं . सूरज डूबने के पहले ही पंछी की आत्मा मेरे अधम शरीर में प्रवेश करती है और मैं अपने एकलौते , सगे अन्तःपुर की शरण में होता हूँ . उनका दो बजे प्रारम्भ होता है .वे बहुत तैयारी के साथ आते हैं . उनके आते ही उस गोपनीय कक्ष में किसी का भी प्रवेश वर्जित होता है . वे आते ही बारी -बारी से कक्ष में लगी खूँटियों पर उसके नीचे अंकित सामान को टाँग देते हैं . कुल ग्यारह खूँटियाँ हैं . फिर वे गोपनीय कक्ष से निकलकर स्वागत कक्ष में आते हैं . लोगों से मिलते हैं और तबतक उनकी गाड़ियों की श्रृंखला लगाई जाती है . आधे घंटे में वे फुर्र . रात आठ बजे लौटकर कुछ विशेष लोगों से ही मिलते हैं . फिर गाड़ियों की श्रृंखला सजती है और वे हर दिन नई गोपनीय स्थान पर चले जाते हैं . सुबह तीन बजे तक लौट आते हैं . ईश्वर की कृपा से उनके पास आवश्यकता से सब कुछ कहीं बहुत अधिक है और उत्तरोत्तर उसमें गुणात्मक वृद्धि होती जा रही है . जनता की सेवा करने में पिल जो पड़े हैं . जनता कहती है कि हमें सेवा की आवश्यकता नहीं है तो वे अपनी भृकुटि तान कर कहते हैं – कैसे जरूरत नहीं है ? है कोई माई का लाल जो मना कर सके . यह सुनकर उनके साथ छाये की भाँती रहने वाले दस – बारह निजी सुरक्षाकर्मी दाँत निपोर देते हैं .

 

उस दिन शहर में बड़े साहित्यिक आयोजन के लिए मामला तय करने स्वघोषित साहित्यकार प्रलयंकर जी को आठ बजे उनसे मिलना था .प्रलयंकर जी को डॉ विद्रोही के साथ जाना था . अचानक डॉ विद्रोही का स्वास्थ्य बिगड़ा और वे आनन – फानन में रुग्णालय टांग – टुंग कर ले जाए गए . प्रलयंकर जी ने अंतिम समय में मुझे पकड़कर बलपूर्वक उनके घर ले गए और शपथ ली कि दुबारा ऐसा नहीं करेंगे . हमलोग उनके घर पँहुचे . पीए ने बताया कि साहब किसी से गोपनीय बात कर रहे हैं और कहा है कि गोपनीय कक्ष में आप प्रतीक्षा करें . हमलोग साहब के गोपनीय कक्ष में पंहुचाए गए . थोड़ी ही देर में प्रलयंकर जी का बुलावा स्वागत कक्ष में हुआ और और इस अंतिम क्षण में प्रलयंकर जी ने बताया कि उन्हें साहब से अकेले ही मिलना होगा . मैंने टोका – फिर मुझे बलपूर्वक खींचकर यहाँ क्यों लाये ? प्रलयंकर बोले – अरे ! साथ तो दिए , अब हिम्मत बढ़ गयी . इतना कहकर प्रलयंकर तेजी से साहब के स्वागत कक्ष में मुझे छोड़ घुस गए .अब गोपनीय कक्ष में मैं नितांत अकेला था तो दीवारों को देखते – देखते दृष्टि खूंटियों पर गयी . खूंटियों के नीचे उस पर टाँगे जाने वाली वस्तुओं के नाम पढ़ने लगा , जो बड़ा रोचक था . वे नाम थे – मनुष्यता , सत्यनिष्ठा (ईमानदारी) , विनम्रता , परोपकार की भावना , सेवा की भावना , भोलापन , स्वच्छ हृदय , रीढ़ ही हड्डी , नैतिकता , उच्च विचार , संवेदनशीलता और उत्तरदायित्व . सभी खचाखच भरे हुए थे . साहब इन्हें उतारकर जो गए थे . इतना भर देखा ही था कि बौराये से प्रलयंकर जी कमरे में आए और मुझे झटके से हाथ पकड़कर बाहर ले आए . मैंने प्रतिरोध किया कि मुझे उनसे मिला तो दें . प्रलयंकर जी बोले – वे ऐरे -गैरे : नथ्थू -खैरे से नहीं मिलते . आयोजन का सारा खर्च साहब देंगे , मुख्य अतिथि बनना उन्होंने स्वीकार लिया है . उसी दिन मिलवा देंगे . मैंने कहा कि जो व्यक्ति खूंटियों में इतने सारे सामान ठूँस कर , लादकर बाहर निकलता है , ऐसे विलक्षण प्राणी का दुर्लभ और दिव्य दर्शन आज ही करना चाहिए था . न हुई उनसे भेंट!